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सियासत को स्वच्छ बनाना भी, स्वच्छ भारत का हिस्सा हो

[शुभम मिश्र] :

चुनाव लड़ने का अधिकार न तो दैवीय है और न ही मानवीय। यह भारतीय संविधान के अंतर्गत कोई मौलिक अधिकार भी नहीं है। यही वजह है कि चुनावों के द्वारा जन-प्रतिनिधि बनने हेतु कुछ प्रतिबंध लगे हैं, जैसे लोकसभा की उम्मीदवारी के लिए न्यूनतम 25 वर्ष एवं राज्यसभा के लिए 35 वर्ष की उम्र आवश्यक है। इसी तरह, यदि कोई किसी ऐसे अपराध में दोषसिद्ध हो चुका है, जिसमें न्यूनतम दो वर्षों के कारावास की सजा मिल सकती हो, तो वह उम्मीदवार नहीं बन सकता। लेकिन , न्याय की प्रक्रिया कच्छप गति से आगे बढ़ती है और दोषसिद्धि में संसद के एक कार्यकाल से भी ज्यादा समय लग जाता है। मामले उच्चतर अदालतों में अपील की एक अंतहीन प्रक्रिया में उलझ जाया करते हैं। चूंकि किसी आरोपी को उसकी दोषसिद्धि तक निर्दोष माना जाता है, सो किसी उम्मीदवार की वास्तविक दोषसिद्धि विरले ही हो पाने की वजह से उसे शायद ही कभी उम्मीदवारी के अयोग्य ठहराया जाता है।
इसी वजह से राजनीति में आपराधिक तत्वों की भागीदारी में इजाफा होता जा रहा है। पिछली तीन लोकसभाओं में स्वघोषित आपराधिक मामलों वाले सदस्यों की संख्या का रिकार्ड देखा जा सकता है। लोकसभा के हर तीन सदस्यों में लगभग एक पर आपराधिक दाग रहा है। यदि केवल गंभीर मामलों को ही लें, तो उनमें हत्या, हत्या की कोशिश, बलात्कार, अपहरण, हिंसक हमले ,और जबरदस्ती की वसूली तक शामिल हैं और यह सूची लंबी है। वर्तमान लोकसभा में प्रत्येक पांच सदस्यों में एक के विरुद्ध गंभीर आरोप लंबित हैं। ऐसे व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से रोकने हेतु कोई कानून केवल संसद द्वारा ही पारित किया जा सकता है और उसकी अनुपस्थिति में कोर्ट हस्तक्षेप कर सकता है। निर्वाचन आयोग पिछले बीस वर्षों से सरकार को ऐसा एक कानून बनाने की पहल करने को लिखता रहा है, पर संसद ने ऐसा कुछ भी न किया। स्वयं निर्वाचन आयोग के पास ऐसे किसी उम्मीदवार को अयोग्य ठहराने की शक्ति नहीं है। यही वह संदर्भ है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसा कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद के पाले में डाल दी, तो यह बहुत निराशाजनक रहा।इस दिशा में संसद की निष्क्रियता हेतु कई दलीलें दी जाती रही हैं। इसमें सबसे प्रमुख यह है कि जब तक किसी को दोषी न करार दिया जाये, वह निर्दोष होता है। इतना तो तय है कि चुनावों में उम्मीदवारी का अधिकार मौलिक अधिकारों की कोटि में शामिल नहीं है, तो क्या 125 करोड़ नागरिकों के इस देश में कुछ हजार ‘बेदाग’ व्यक्ति नहीं तलाशे जा सकते हैं ?  उम्मीदवारी के इच्छुक व्यक्तियों से क्यों यह नहीं कहा जा सकता कि वे अदालतों से अपने दाग साफ कराकर ही चुनावी अखाड़े में उतरें? चुने गये जन-प्रतिनिधियों में बढ़ती आपराधिकता के आलोक में हमें अदालतों से ऐसी ही कड़वी दवा की जरूरत है। इस देश में बीसों लाख व्यक्तियों के अधिकार इससे कहीं छोटी वजहों से कुचले जाते रहे हैं और जेलों में बंद पड़े लाखों विचाराधीन कैदी अपने अधिकारों से वंचित किये जाते रहे हैं। यह कैसी विडंबना है, कि पुलिस हिरासत में पड़े किसी व्यक्ति को मतदान का अधिकार नहीं है, पर उसे चुनावों में खड़े होने और जीतने का अधिकार हासिल है। सियासी पार्टियां उम्मीदवारों को हर कीमत पर उनके जीतने की क्षमता के आधार पर ही खड़े करती रही हैं। मतदाताओं को भी भ्रष्ट अथवा आपराधिक सियासतदानों तथा शासन और बुनियादी ढांचे एवं सामाजिक सेवाओं में गिरावट के बीच के गठजोड़ को समझने की जरूरत है। सांसदों की निष्क्रियता की एक दूसरी दलील यह है कि उम्मीदवारों को राजनीति-प्रेरित, गढ़े गये आरोपों का सामना करना पड़ेगा। सच तो यह है कि यदि हम पुलिस एवं दंडाधिकारियों को पटाये जाने को लेकर इतने ही निराशावादी हैं, तो फिर हमें लोकतंत्र से ही तौबा कर लेनी चाहिए। इसके अलावा, इसके निराकरण के लिए एक अवरोध यह तो है ही कि इस हेतु चुनावों के कम-से-कम छह माह पूर्व लगे आरोप ही लिये जा सकते हैं और फिर ये आरोप केवल थाने के एफआइआर नहीं, बल्कि किसी सक्षम अदालत द्वारा गठित आरोप ही होते हैं।  निष्क्रियता की तीसरी दलील यह है कि निर्वाचित सांसदों-विधायकों के विरुद्ध मामलों की जांच हेतु फास्ट ट्रैक अदालतें गठित की जा सकती हैं। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। इन सभी वास्तविकताओं के दृष्टिगत, कम-से-कम संगीन आरोपों का सामना कर रहे व्यक्तियों द्वारा संसद तथा राज्य विधायिकाओं के चुनाव लड़ने पर रोक न लगाकर सुप्रीम कोर्ट ने वस्तुतः एक सुअवसर भी गंवाया है। यदि उसने एक अनुकूल फैसला दिया होता, तो सियासी पार्टियां बेदाग उम्मीदवार तलाशने को मजबूर होतीं अथवा संसद को ही कानून बनाकर वह फैसला पलटना होता। हालांकि, उसने यह कहा कि पार्टियों को अपने ऐसे उम्मीदवारों के नाम स्पष्टतः उजागर करना यानी उन्हें उम्मीदवारों और खुद को शर्मिंदा करना पड़ेगा। निर्वाचन आयोग को भी ऐसे ही किसी कदम पर विचार करना चाहिए।