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आलेख : - जब अपने बेटे से है स्नेह तो दूसरों से क्यों नहीं ?

[अलीगंज | राहुल कुमार] Edited by-Abhishek Kumar Jha.
रविवार की एक अलसाई सी दोपहर ,गर्मी अपने पूरे परवान पर थी। थोड़ी देर पहले ही सोया था तभी एका-एक मेरा मोबाइल फोन गुनगुनाने लगा। मैं उठा सोचते हुए ये कहा से..इग्नोर करके फिर सो गया। मगर उसके स्वर कानों में लगातार पड़ी तो आंखों की नींद ने भी बगावत कर दी। आंखे मसलते हुए कदम बढाकर टेबल पर रखा मोबाइल फोन हाथ मे लेकर स्क्रीन निहारा अगर एक बात सच कहूं यतिशोक्ति नहीं होगी ये आलार्म की घंटी थी। घड़ी के तरफ देखा तो दो बज चले थे।

फिर खिड़की से बाहर नजर दौड़ाया। पड़ोसी के कुछ बच्चे खेल रहे थे, मन प्रफुल्लित हो गया। मैंने भी मन ही मन बुदबुदाया कि अकेले रहने से बेहतर क्यों ना पार्क की हरियाली का कुछ आनंद लिया जाए। जल्द ही फ्रेश होकर बाहर आया।

शहर की सङको पर भीड़-भाङ रहना कोई नई बात तो रही नहीं पर रास्ते के किनारे लगे फुटपाथ को देखना मेरे लिए एक सुखद अनुभव है। मुझे लगता है इससे सफ़र जल्दी पुरा हो जाता है। देखते ही देखते सङक के चौक से गुजरे जा रहा था। संयोगवश उस वक्त सङको पर ट्रैफ़िक था तभी एक शूट-बूट वाले साहब अपने बेटे की सुरक्षा का ख्याल करते हुए सड़क का ट्रैफ़िक पार कर रहे थे। देखकर उचित लगा।
आजकल के पापा कितने सावधान हो गए हैं। हमारे ज़माने मे तो विल्कुल...ख़ैर। उनके पापा ने होशियारी पूर्वक सङक पार कर चूके थें। एका-एक उसे ख्याल आया कि एक बैग उस पार मिठाई की दुकान मे ही छुट गया है। साहब के माथे पर अब चिन्ता की रेखाएँ उभरी। सरपट भागती गाङियो के बीच डगर पार करना मुश्किल लगा रहा था। अपने बेटे को प्यार से सर थपथपाया और अनज़ान शहर में  कुछ देर छोड़ना भी उन्हें नहीं भा रहा था। तभी उनकी नज़र सामने खोमचे पर मूंगफली बेचते बच्चे पर पड़ा तो बुलाकर पंद्रह रूपये उसके तरफ बढ़ाते हुए कहा; 'जा जाकर  मिठाई की दुकान से मेरा बैग ले आ।

महाशय जी ने इशारा दुकान की तरफ किया ही था। कि एक वृद्ध  व्यक्ति ने उन्हें बोलते हुए सुन लिए और सुनते भी कैसे नहीं वे उसमे  लगभग सट कर खड़ा थे। इसलिए नज़र घुमाकर कहने से नहीं चूके थे कि दुसरे के बच्चे का कोई महत्व नहीं। अभी मुश्किल से चार-पाँच मिनट ही गुजरा था की वही साठ-पैसठ साल का बुजुर्ग आदमी ट्रैफिक चिरता हुआ गया और बैग लेकर हिलता-डुलता इस पार आया। बैग को उस शूट-बूट वाले साहब के आगे रख दिये ।

तब तो वे बुजुर्ग से आंख तक नही मिला पा रहे थे। उन्हें अपने गलती का अहसास हो रहा था। मैं आश्चर्यचकित सा देखते हुए पार्क की तरफ बढ़ गया। वैसे भी हमें लेट हो रहा था। शायद महाशय जी के मुख से बुजुर्ग के लिए धन्यवाद जैसे शब्द भी नही निकला होगा। क्योंकि उनकी परोपकारिता के आगे 'धन्यवाद' शब्द भी छोटा पड़ता दिख रहा था।

(यह आलेख 'राहुल कुमार' द्वारा gidhaur.com के लिए एक स्वरचित रचना है। इस आलेख का भावार्थ रचयिता के अपने विचार है।)

संकलन :- चन्द्रशेखर सिंह, अलीगंज