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गुरुवार, 10 सितंबर 2020

कवि कथा - ११ : कवि सम्मेलनों में जाना-आना बाबूजी की दृष्टि में आवारागर्दी के अलावा कुछ नहीं था

विशेष : जमुई जिलान्तर्गत मांगोबंदर के निवासी 72 वर्षीय अवनींद्र नाथ मिश्र का 26 अगस्त 2020 को तड़के पटना के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया. स्व. मिश्र बिहार विधान सभा के पूर्व प्रशासी पदाधिकारी रह चुके थे एवं वर्तमान पर्यटन मंत्री के आप्त सचिव थे. स्व. मिश्र विधान सभा के विधायी कार्यो के विशेषज्ञ माने जाते थे. इस कारण किसी भी दल के मंत्री उन्हें अपने आप्त सचिव के रूप में रखना चाहते थे.

अवनींद्र नाथ मिश्र जी के निधन के बाद उनके भाई एवं गिधौरिया बोली के कवि व हिंदी साहित्य के उच्चस्तरीय लेखक श्री ज्योतिन्द्र मिश्र अपने संस्मरणों को साझा कर रहे हैं. स्व. अवनींद्र नाथ मिश्र का पुकारू नाम 'कवि' था. ज्योतिन्द्र मिश्र जी ने इन संस्मरणों को 'कवि कथा' का नाम दिया है. इन्हें हम धारावाहिक तौर पर gidhaur.com के अपने पाठकों के पढने के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. यह अक्षरशः श्री ज्योतिन्द्र मिश्र जी के लिखे शब्दों में ही है. हमने अपनी ओर से इसमें कोई भी संपादन नहीं किया है. पढ़िए यहाँ...

कवि -कथा (११)

नियति की नीयत हम दोनों भाइयों को अलग अलग रास्ते की तरफ ले जाने के लिए उत्सुक हो चुकी थी ।ऐसी विषम परिस्थितियों में कोई तीसरे की मध्यस्थता निहायत जरूरी था । मेरे छोटे बहनोई जो उम्र में हम दोनों से वय श्रेष्ठ थे उन्हें बुलाया गया ।वे अंग्रेजी, और इतिहास से स्नातकोत्तर थे । विद्वान पिता के विद्वान पुत्र । कवि से उन्हें पटता भी था ।  उन्होंने कवि जी को अगले वर्ष उत्तीर्ण कराने का स्नेह भार शिरोधार्य कर लिया और तन मन से इस पुनीत कार्य में लग गए ,कालांतर में सफल भी हुए ।इस बीच खर्च वर्च लेकर मैं पटना चला आया । फिर मुज़फ्फर पुर गया । वहाँ मेरे पूज्य चचेरे भ्राता स्व आशुतोष नाथ मिश्र , लंगट सिंह कालेज में हेड क्लर्क थे । उन्होंने मेरा एड्मिसन बी एस सी पार्ट -1 में करा दिया और सतत स्नेह बनाये रखा  । 1965 से लेकर 1971 तक हम दोनों भाई अलग अलग पठन पाठन में रहे। गर्मी की छुट्टियों में ही मिलते जुलते थे । कवि ने बेगुसराय कालेज से केमिस्ट्री आनर्स किया ।फिर टी एन बी भागलपुर आये । स्टेटिक से एम एस सी किया । वहीं एल एल बी भी किया ।इस प्रकार वे  एम एस सी ,एल एल बी  की डिग्रियां अर्जित की ।  मैं बी एस सी ही कर सका । कवि से मेरी तुलना नहीं हो सकी । आगे चलकर भी पूरे परिवार में सबसे छोटी डिग्री मेरे जिम्मे ही रही । परिवार में सबसे कम पढा लिखा सदस्य मैं ही हूँ। मेरे मंझले भाई भी बी ए एम एस , आयुर्वेद एवम साहित्याचार्य हैं।सबसे छोटे भी एम ए ज्योग्राफी और एल एल बी हैं।
 छः साल तक अलग रहने के कारण हमदोनों के स्वभाव में अपने अपने हिस्से का भोगा हुआ  सुख दुःख, मान अपमान, पहनावा ओढावा , प्रेम विछोह , रिश्ते नाते के छल कपट , भूख प्यास  , नैतिक अनैतिक  आचरणों के अनुभव का भी स्पष्ट असर दिखाई दे रहा था ।फिर भी भाई का प्रेम बचा हुआ रह गया था । 1970 में जब एफ्रो एशियाई प्रगति शील लेखक सम्मेलन में जाने के लिए मेरा भी चयन हुआ तो मेरे पास पैसे नहीं थे ।बाबूजी मेरे जैसे कलमनवीसों पर व्यर्थ धन गंवाना नहीं चाहते थे ।उस वक्त कवि ने अपने पाकेट का 78 रुपया देकर उत्साह बढ़ाया था । माँ ने भी चुपके से एक नमरी दी थी । कुछ अपने जिम्मे भी था । मैं आराम से नई दिल्ली पहुंच गया। मधु लिमये साहब के यहाँ 7 दिनों तक ठहरे थे ।कवि सम्मेलनों में जाना आना बाबूजी की दृष्टि में आवारागर्दी के अलावा कुछ नहीं था । वे मेरा विवाह कर देना चाहते थे ।माँ की मंशा भी यही थी । वह अलग ढंग से सोच रही थी कि मेरी छोटी बहनों के विवाह हो जाने पर घर कौन सम्हालेगा। होते हवाते एक स्थानीय स्वजाति का चतुर परिवार मेरे संयुक्त परिवार की गरिमा में सेंध मारते हुए बड़े बाबूजी से विवाह हेतु हाँ करा लिया ।फिर भी मैं इनकार कर रहा था । कुछ हद तक विद्रोह पर उतारू था । तभी कवि ने यह कहते हुए दखल दे दिया कि बाबूजी अगर हाँ कह दिये हैं तो भाई को परिवार की प्रतिष्ठा का ख्याल रखना होगा । 
मग -कुल रीति सदा चलि आई
प्राण जाय पर वचन  न  जाई
 यदि वे विवाह नहीं करेंगे तो मैं शादी कर लूँगा । ।मैं उसका मुँह ताकता रहा ,मुझे लज्जित करने के लिए इससे तीखा नैतिक प्रहार और क्या हो सकता था । यद्यपि हँसी मजाक में यह बात आई गयी हो गयी ।लेकिन मुझे विवाह के लिए बाध्य कर गया ।सवाल मेरे परम् पूज्य बड़े बाबूजी द्वारा दिये गये एकवचन का था । उसी 1971 साल में मेरा विवाह संपन्न हो गया । जब यह बात मेरी पत्नी को कही गयी तो दोनों की दोस्ती भी पक्की हो गयी।दोनों एक साथ किचेन में  व्यंजन बनाने लगे । अब मुझे जॉब की चिंता सताने लगी । फिर मुज़फ्फर पुर गये। वहाँ एक साप्ताहिक पत्रिका में सह संपादक का कार्य किया । लेकिन 150 रुपये से काम चलने वाला नहीं था ।1973 में सचिवालय सहायक की परीक्षा हुई। सेंटर भागलपुर में था। कवि उस वक्त नाथनगर जैन धर्मशाला में रहकर पढ़ते थे। जब मैंने कहा कि इम्तहान देने आया हूँ तो अपने मित्र सुधीर झा के स्वर में स्वर मिला कर कहा कि -- क्या ई सब इम्तहान देने आए 300 रुपया वेतन मिलेगा।
मैंने कहा कि इसी 300 रुपये की अब जरूरत हो गयी है।
मैंने इम्तहान दिया और चले आये। जब 1975 में रिजल्ट निकला तो कवि ने ही अखबार काटकर लिफाफे में भरकर भेज दिया । वह आज भी मेरे पास है। 13 मार्च 1975 को मैंने पटना आकर सचिवालय ज्वाइन कर लिया।
क्रमशः


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