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पुलिस और पत्रकार : गैर-कानूनी वसूली के लाइसेंसी एजेंट


समाज का यह एक बड़ा सवाल है कि क्या पुलिस और पत्रकार गैर-कानूनी वसूली के लाइसेंसी एजेंट बन चुके हैं ?

अगर आप किसी वातानुकूलित कार्यालय के भीतर बैठकर काम करने वाली नौकरी नहीं करते, जीवन-यापन के लिए आपको सड़कों-गलियों में घूमना-फिरना-रहना पड़ता है, तो निश्चित है कि आपको पुलिसिया रौब से रूबरू होना पड़ेगा, और अगर आप निम्न आर्थिक वर्ग अथवा निम्न-मध्यम आर्थिक वर्ग से हैं, तो समय-समय पर शोषण से आपको रूबरू होते रहना पड़ेगा. संसद में चुनकर जाने वाले लोग गरीबों के हक में नियम-कायदे-कानून बनाते समय गरीबों की सुरक्षा-स्वतंत्रता पर कम, और अपने स्वार्थ-महत्वाकांक्षाओं पर ज़्यादा केन्द्रित रहते हैं. फिर गरीब लोग उन कमजोर नियम-व्यवस्थाओं का जीवन भर शिकार होते रहते हैं, और सत्ता-प्रशासन में शामिल अमीर लोग उन्हीं कमजोर नियम-व्यवस्थाओं के बल पर जीवन भर शोषण करते रहते हैं.

देश का एक भी सांसद सीना ठोककर यह दावा नहीं कर सकता है कि संसद के द्वारा बनाये गये नियम गरीबों की सुरक्षा-स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त हैं. इन परिस्थितियों में संसद में बैठे लोग इस बात को लेकर कहीं से उत्सुक नहीं दिखते कि गरीबों की स्वतंत्रता एवं उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये क्या-क्या संशोधन किये जाने उचित हैं.     

भारत के किसी भी शहर-गाँव में चले जाइए, स्थानीय थाना के पुलिसकर्मियों द्वारा छोटे-छोटे दुकानदारों को भयभीत कर पैसे वसूल करने की बात सामने चली आयेगी. सामान्य कोई झमेला अगर थाने तक पहुँच जाता है, तो जैसे डॉक्टर आजकल मरीज को एक ग्राहक की तरह देखकर पैसा कमाई का जरिया मात्र समझते हैं, उसी तरह थाना के अधिकारी झमेला में शामिल दोनों पक्षों को प्रथम दृष्टया ऐसे 'क्लाइंट' के रूप में देखते हैं जिससे गैर-कानूनी तरीकों से पैसा वसूली किया जा सकेगा. उसके बाद थाना के अधिकारियों के पास तिकड़म एवं कलाबाज़ियों की कोई कमी नहीं होती. उन तिकड़मों से साक्षात्कार के बाद यह आसानी से महसूस किया जा सकता है कि अगर ये पुलिसकर्मी अपने विवेक का उपयोग गरीबों के अधिकारों की रक्षा के लिये करने लगें तो इनमें समझ और क्षमता की कोई कमी नहीं.        

इनमें से जो अपवाद वाले पुलिसकर्मी या थाना होते हैं, उन्हें अनेक मशक्कतों का सामना करना पड़ता है. ईमानदार पुलिसकर्मी से अन्य पुलिसकर्मी सतर्क रहने लगते हैं क्योंकि गैर-कानूनी वसूली में ईमानदार पुलिसकर्मी अन्य पुलिसकर्मियों के लिये सबसे बड़ी बाधा होते हैं. साधारणतः ऐसा होता है कि जोश से लबरेज ईमानदार पुलिसकर्मी पर बेईमानी का ठप्पा लगाकर उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है.

पत्रकार वसूली के दूसरे प्रमुख एजेंट हैं. बगुले की तरह सफेदपोश पत्रकार घटनाओं पर बहुत ही बारीकी नजर बनाये रखते हैं, और वसूली के अवसर को मछली की तरह चोंच में चांपकर निकल लेते हैं. अनेक थाना-क्षेत्रों में पुलिस-पत्रकार की जुगलबंदी भी होती है. पत्रकार अफसरों-व्यासायियों की जी-हुजूरी कर अक्सर टिप्स लेते रहते हैं. अफसरों-व्यावसायियों की कमजोरी के प्रमाण हाथ लग जाने पर पत्रकार महा-अफसर बन जाते हैं. तरह-तरह के करतब दिखलाकर कभी गुर्राते हुये तो कभी शुभचिंतक बन समझाते हुये पत्रकार हाथ में आये प्रमाणों का सौदा कर लेते हैं, और अच्छी-खासी राशि की उगाही कर लेते हैं. कभी किसी बड़े नेता-मंत्री की कोई कुंजी हाथ लग जाये तो पत्रकार उन गुनाहों को छुपाने के लिये 'मोटे माल' की उगाही कर लेते हैं. 

आवश्यक खबरों को चलाने के बजाय उन्हें बेचकर पत्रकारों ने मीडिया के स्तर को 'पानी पीने योग्य स्वच्छ नदी की धाराओं' से गिराकर 'कीचड़ से लथपथ तालाब' तक पहुँचा दिया है.

चुनावों में पत्रकारों की चहल-पहल बढ़ जाती है. लिखने-पढ़ने की उनकी कलाओं को सर्वोच्च मान-सम्मान चुनावों के समय ही मिल पाता है. अधिकतर पत्रकार किसी-न-किसी नेता-उम्मीदवार के दरबारी-पत्रकार बन जाते हैं. दिन भर उस विशेष नेता के गुणगान वाली खबरें और आलेख लिखते रहते हैं. अपने मीडिया हाउस के अलावे अन्य मीडिया हाउस में भी तैयार किये गये उन खबरों को चलवाते हैं. उसी अनुसार फिर उन अन्य मीडिया हाउस को पैसे भी भिजवाते हैं. पत्रकार चुनावी क्षेत्र की स्थितियों का पहले ही आकलन कर लेते हैं. वे निष्पक्ष रूप धारण कर आम जनता के बीच पहुँच जाते हैं. जमीनी हकीकत का रूख भाँपकर अपने आका को बताते हैं. फिर उसी हिसाब से नेता जी की चुनावी रणनीति के जाल बिछाए जाते हैं.

इन पूरे माहौल में अपवाद वाले ईमानदार पत्रकार पिट जाते हैं. न पुलिस-अफसर महकमे में उनकी पूछ होती है, और न ही नेताओं के दरबार में उन्हें कोई महत्व देता है. कभी नेताओं के द्वारा, तो कभी पुलिस एवं अन्य विभागों के अफसरों के द्वारा अक्सर वे बेज्जत किये जाते हैं. अन्य साथी पत्रकार भी उन्हें कमाई की राह में रोड़े की तरह देखने लगते हैं. अवसर मिलने पर सब मिलकर ईमानदार पत्रकार के जोश को अभिमन्यु की तरह घेर कर शेष कर देते हैं.

इन सारे माहौल में एक बड़ी बात यह भी है कि आजादी के 72 साल बाद गरीबी तो नहीं ही मिटाई जा सकी, साथ ही देश को गरीबों के रहने योग्य भी नहीं बनाया जा सका.                            



(यह आलेख पत्रकार धनंजय कुमार सिन्हा द्वारा लिखा गया है जिसमें gidhaur.com के द्वारा कोई एडिटिंग नहीं की गई है. आलेख के विषय-वस्तु की समस्त जिम्मेवारी लेखक की है)