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शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

संपादकीय : भारतीय संस्कृति की विविधता का महानतम समावेश है 'कुम्भ'

इस प्रकार से देखा जाये तो कुम्भ विश्वभर के लिए निमंत्रण है. अगर आपके पास बांटने के लिए कुछ भी है तो प्रसन्नचित्त होकर आइये और अपने ज्ञान का प्रदर्शन और वितरण निःशुल्क कीजिये...


सम्पादकीय (सुशान्त साईं सुन्दरम) : यूँ तो यह बेहद सामान्य सी बात है कि धार्मिक स्थलों एवं पवित्र नदियों के तट पर पूजनोत्सव अथवा मेला का आयोजन हो. यही हमारे देश की संस्कृति और परंपरा है. प्रतिवर्ष देश के अलग-अलग स्थानों पर कई प्रकार के उत्सव एवं मेलों का आयोजन होता है, लेकिन किसी को इस बात को जानने की इच्छा नहीं होती कि उत्सव या मेला का आयोजन क्यूँ होता है. लोगबाग तो बस उसमें सम्मिलित होने के लिए पहुँच जाते हैं. मनोवैज्ञानिक तौर पर देखा जाये तो जहाँ भीड़ लगी होती है, लोग वहाँ पहुँच जाते हैं. मेले में कोई अपनी दुकान सजाता है तो कोई उस दुकान से सामान खरीदने जाता है. कोई खाने-पीने के लिए जाता है तो कोई खेल-तमाशों का लुत्फ़ उठाने. न तो कोई आयोजकों से पूछता है और न ही कभी राज्य या भारत सरकार से पूछता है कि गाँधी मैदान या रामलीला मैदान में मेलों का आयोजन क्यूँ करवाते रहते हैं.

कुम्भ मेला विश्व में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा संग्रहण है. हजारों-लाखों की संख्या में लोग इस पावन उत्सव में उपस्थित होते हैं. कुम्भ का संस्कृत अर्थ होता है - कलश. ज्योतिष शास्त्र में कुम्भ राशि का भी यही चिन्ह है. हिन्दू धर्म में कुम्भ का पर्व हर १२ वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है: हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहबाद में संगम जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं. कुम्भ के मेले में जाने वाले लोगों से अगर पूछा जाये कि वे वहां क्यूँ जाते हैं तो सीधा सा जवाब यही होगा कि वे पुण्य कमाने आये हैं. भारत में अधिकांश पूजनोत्सव एवं मेले का आयोजन पवित्र नदियों के तट या नदियों के संगम स्थल पर होता है. शायद यह ही एक वजह है कि उन नदियों में स्नान का भी बहुत बड़ा महत्व होता है. ऐसी धारणा है कि स्नान कर लेने भर से ही अनेक लोगों की मनोकामनाएं पूरी हो जाती है. यह एक बड़ी वजह है कि ऐसे आयोजनों में लोग मुख्य रूप से स्नान करने ही आते हैं. गिद्धौर की ही बात करें तो हर वर्ष शारदीय नवरात्र के अवसर पर दूर-दराज के इलाके के लोग हजारों-लाखों की संख्या में नागी-नकटी-उज्ज्वालिया नदी के संगम, जिसके किनारे गिद्धौर का दुर्गा मंदिर स्थित है, में स्नान कर भीगे शरीर ही दंडवत देते हुए मंदिर तक आते और परिक्रमा करते हैं. इसकी शुरुआत कब और क्यूँ हुई इसकी सटीक जानकारी किसी के पास उपलब्ध नहीं है.

लेकिन यह सोचनीय है कि क्या किसी विशेष घड़ी में किसी संगम तट पर स्नान करने के लिए इतना वृहद आयोजन होता है? देश के विभिन्न कोनों से लाखों की संख्या में आम आदमी, साधू-महात्मा, साधुओं के आखाड़े यहाँ आते हैं - केवल संगम में स्नान के लिए? अंतर्द्वंद के बावजूद यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि ऐसे आयोजनों में लोग केवल स्नान के लिए आते हैं.
इस प्रकार के कर्मकांड धर्म के बाहरी आवरण के तरह होते हैं. आम लोगों को जब धर्म का मर्म नहीं समझाया जा सकता तो उनके समक्ष कुछ आदर्श और क्रियाएं रख दी जाती हैं. यह भी संभव है कि विशेष घड़ी में किसी विशेष स्थल पर स्नान करने पर सूर्य की किरणों में समाहित किरणों में निहित विभिन्न शक्तियों से लोगों को लाभ होता हो. वैसे संभव तो यह भी है कि खगोलीय गणना के अनुसार भी प्रकृति कोई वर देती हो. लेकिन ये सब तो साधना के विभिन्न पहलु हैं. लाखों की संख्या में साधारण लोग वहां साधना करने नहीं जाते, इसका कोई और दूसरा पक्ष भी होना चाहिए.

मुझे ऐसा लगता है कि जब कोई व्यक्ति नए ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है तो उसे इस ज्ञान को सार्वजनिक करने के लिए किसी उचित मंच की जरुरत होती है. जब कोई वैज्ञानिक अपनी लेबोरेटरी में अथक मेहनत और नए प्रयोगों के माध्यम से नया अविष्कार करता है या किसी नए तथ्य को खोजता है तो उसे इस बात को दुनिया के सामने रखने के लिए विश्वस्तरीय गोष्ठी या कार्यक्रम की आवश्यकता होती है. उसे किसी ऐसे माध्यम की आवश्यकता होती है जो उसके नए अविष्कार को संसार के प्रत्येक कोनों में पहुंचा सके.

लेकिन इस बात को भी मानना होगा कि कोई कितने भी बड़े कार्यक्रम आयोजित कर ले, वहां न जनसाधारण की प्रयोग होती है, न जन-जन की. उसके लिए कुम्भ जैसा मेला ही आशातीत होता, जिसमें कोई भी शामिल हो सके. जो इन प्रयोजनों में मिट्टी पर बिछौना बिछा कर सो सके. घर से अपने साथ लाये मोटरी से निकाल कर सत्तू-लिट्टी-चना-भूंजा खा कर अपनी भूख मिटा सके. अपनी जरुरत के हिसाब से अविरल बहती नदी की धारा से पानी ले सके. धार्मिक माहौल में मानसिक शांति की अनुभूति कर सके. इन सबके अलावा उसकी पहुँच देश-दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के सभी विद्वानों तक हो सके. कुम्भ मेला के नाम पर कुछ ऐसा ही चित्र मेरी नजरों के सामने प्राकट्य होता है. यह भी सच है कि वर्तमान में कुम्भ मेला में धर्म के ही नाम पर लोग एकत्रित होते हैं और धर्म तथा अध्यात्म के क्षेत्र के साधक और महात्मा जुटते हैं. मेले में लोग व्यक्तिगत पुन्य अर्जित करने आते हैं, शायद थोड़ा-बहुत ज्ञान भी पाना चाहते हों. साधुओं के अखाड़े भी विभिन्न प्रकार से अपना प्रदर्शन करते हैं. इनमें परस्पर प्रतिभागिता और द्वेष की भी भावना होती है. वे अपने देश और धर्म का ज्ञान और शक्ति प्रकट करने के लिए वहां एकत्रित होते हैं. उनका शास्त्रार्थ आम लोगों को ज्ञान देने के लिए होता है और शस्त्र-प्रदर्शन देश और धर्म के शत्रुओं का कलेजा कांपने के लिए.
इस प्रकार से देखा जाये तो कुम्भ विश्वभर के लिए निमंत्रण है. अगर आपके पास बांटने के लिए कुछ भी है तो प्रसन्नचित्त होकर आइये और अपने ज्ञान का प्रदर्शन और वितरण निःशुल्क कीजिये. आदिकाल से ही यह हमारे राष्ट्र की परंपरानुसार ज्ञान-विद्या-कला का वितरण निःशुल्क ही किया जाता रहा है. गुरुकुल परंपरा की अगर बात करें तो गुरु अपने निजी वहन से अपने शिष्यों का पालन-पोषण कर उन सब को अपना समस्त ज्ञान देते आये हैं. हमारा यह निमंत्रण उन आम लोगों के लिए भी है जो अपने सम्पूर्ण राष्ट्र की विविधताओं का दर्शन एक ही जगह पर एक ही समय में करने की मीमांशा रखते हैं. जो लोग अपने भारतवर्ष के पुरे ज्ञान को किसी बड़े लाइब्रेरी की तरह एक ही जगह पर देखने की इच्छा रखते हों. इन विविधताओं और देश के ज्ञान की इस लाइब्रेरी से अपनी जरूरत के हिसाब से कुछ पाने की तीव्र लालसा रखते हों. तो वैसे लोग सहर्ष यहाँ आयें और देखें कि उनका राष्ट्र उन्हें क्या-क्या दे पाने की सक्षमता रखता है. और इसके बाद अपनी चाहत से अपना विषय चुन लें, गुरु चुन लें और अपने लिए ज्ञान चुन लें. कुम्भ स्नान केवल जल स्नान नहीं है बल्कि अनवरत-अविरल-निश्छल बहती ज्ञान-धारा का स्नान है, थोड़ा देखकर, थोड़ा सुनकर और थोड़ा उस माहौल से आत्मसात कर. १२ वर्षों में एक बार ही सही, लेकिन कुम्भ उत्कृष्ट है और उसी प्रकार उसकी उपलब्धि भी उत्कृष्ट होनी चाहिए.
अब तो इंतजार है उस दिन का जब न केवल भारतवर्ष बल्कि वैश्विक स्तर के साहित्यकार, कवि, दार्शनिक, वैज्ञानिक, साधक एवं कलाकार कुम्भ मेला के विहंगम आयोजन को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का मंच बनायेंगे और प्राचीन परम्परानुसार अपना ज्ञान राष्ट्र की जनता के बीच निःशुल्क वितरित करेंगे. अगर ऐसा संभव हुआ तो कुम्भ केवल धर्म, श्रद्धा और आस्था का मंच न रहकर पूर्ण रूप से देश के ज्ञान और संस्कृति का प्रतिमूर्ति होगा. कुम्भ से होकर लौटने वाला व्यक्ति केवल अपना तन ही धोकर नहीं आएगा बल्कि नया संस्कार लेकर लौटेगा. वह अपने देश के प्रति गर्व का भाव लेकर लौटेगा. एक प्रकार की संतुष्टि ही नहीं बल्कि एक नई लालसा लेकर आएगा. कुम्भ से लौटकर, वह अपने इर्द-गिर्द एक नए और गौरवशाली भारत का निर्माण कर सकेगा. खुद से समाज की उम्मीदों की पूर्ति कर सकेगा. सामाजिक सौहार्द, मिल्लत, एकता और विभिन्नता की भंगिमाओं को आत्मसात कर नवराष्ट्र का सृजन कर सकेगा.

एडिटर-इन-चीफ
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तस्वीर साभार : फेसबुक 

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