हमारे देश के संविधान ने पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ करार दिया है। एक जिम्मेदार पत्रकार अपने समाचारों की प्रस्तुति से समाज में सदगुणों को बढ़ावा देता है और लोगों में जागरूकता फैलाता है। विकासशील लोकतांत्रिक देशों में प्रेस वालों और पत्रकारों का महत्व इसीलिए बहुत अधिक माना जाता है। यही कारण है कि पुराने मनीषियों ने पत्रकारिता का उद्देश्य और संकल्प सामाजिक योगक्षेम माना है। यद्यपि प्रेस को सही अर्थों में सामाजिक दर्पण की भूमिका के निर्वाह में सामाजिक जिम्मेदारियों के आदर्श को सम्मुख रखना चाहिए। एक आदर्श पत्रकारिता अतीत के परिपेक्ष्य में वर्तमान पीढ़ी को भविष्य के लिए तैयार करती है। वर्तमान समस्याओं के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालकर वर्तमान पीढ़ी को उन पर सोचने, समझने एंव समाधान प्रस्तुत करने के लिए अनुप्रेरित करती है।
पत्र-पत्रिकाओं की निर्भीक वाणी न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो सकती है। अन्यायी, अपराधी, भ्रष्टाचारी को कठघरे के पीछे खड़ा कर सकती है। जन सामान्य को समुचित दिशा निर्देश और प्रशिक्षण दे सकती है तथा जन जागृति एवं दायित्वबोध के गुरूतर दायित्व का निर्वाह कर सकती है। वहीं दूसरी ओर पत्रकारिता के उददेश्य और लक्ष्य बदल रहे हैं। इसमें कोर्इ दो राय नहीं कि आज पत्रकारिता मिशन न रहकर पेशे में बदल चुकी है। मीडिया में बढ़ रहे उपभोक्तावाद व प्रतिस्पर्धा ने गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग को जन्म दिया है। परिणामस्वरूप मीडिया अपने उद्देश्यों से विमुख हो स्व:हित की अंधी दौड़ में दौड़े जा रही है।
कुछ भ्रष्ट पत्रकारों के कारण आज तमाम पत्रकारों की छवि पर उंगली उठ रही है पर शायद उन भ्रष्ट कलम के रखवालों को यह पता नहीं कि पत्रकारिता में ही जब इतनी नकारात्मकता है तो फ़िर इसके भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है। बहुत दुख होता है कि दिन-दहाड़े कहीं भी किसी पत्रकार की हत्या कर दी जाती है, दरअसल वो हत्या पत्रकार की नहीं बल्कि पत्रकारिता का है। साथ ही ये हत्या है सच्चाई के खिलाफ उठने वाले कलम की। अब जरा सोचिये, नकारात्मकता की जमीन में सकारात्मकता का फ़सल बोया जा सकता है क्या? अगर हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही सुरक्षित नहीं रहेगा तो हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करें भी तो कैसे?
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(यह आलेख अभिषेक कुमार झा द्वारा gidhaur.com के लिए लिखा गया है)
~गिद्धौर | 13/07/2017, गुरुवार
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