भाजपा-कांग्रेस सहित सभी पार्टियों का रवैया तानाशाही, आन्तरिक लोकतंत्र का घोर अभाव : धनंजय

पटना/बिहार (Patna/Bihar), 2 अप्रैल 2024, मंगलवार
* धनंजय कुमार सिन्हा
देश की राजनीति में सब तरफ तानाशाही का बोलबाला है। सभी तानाशाह खुद को लोकतांत्रिक और दूसरे को तानाशाह बता रहे हैं। गौर से देखें तो केन्द्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें, सत्ता पक्ष में बैठे दल हो या विपक्ष में बैठे सभी दल, सबका तौर-तरीका तानाशाही ज्यादा और लोकतांत्रिक कम है।

प्रधानमंत्री कई निर्णय तानाशाह की तरह ले रहे हैं। जितना मौका कांग्रेस और गांधी परिवार को मिल रहा है, वहां उनका भी रवैया तानाशाही है। बिहार में नीतीश जी की बात करें या लालू परिवार की, यूपी में अखिलेश जी की बात करें या #मायावती जी की, पश्चिम बंगाल में ममता दी की बात करें या दिल्ली में केजरीवाल जी की या फिर अन्य प्रदेशों के प्रभावशाली नेताओं और उनके परिवार की, जिसको जहां मौका मिलता है, वे वहां तानाशाही तरीके से सरकार या पार्टी में निर्णय लेते हैं।

सभी सरकारों में चूंकि केन्द्र सरकार सबसे ज्यादा ताकतवर है और भाजपा की सबसे ज्यादा राज्यों में भी सरकारें हैं, तो उनके तानाशाही निर्णयों की संख्या और उसका प्रभाव भी सबसे ज्यादा है। भाजपा की तुलना में कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों के तानाशाही निर्णयों की संख्या एवं उसका प्रभाव क्षेत्र कम है। किन्तु तानाशाही रवैयों के मामले में बड़े एवं छोटे दायरों में भाजपा एवं अन्य समस्त विपक्षी दलों का चरित्र एक जैसा है। किन्तु इनमें जो जब राजनैतिक रूप से कमजोर पड़ता है, तब वह लोकतंत्र और पारदर्शिता की बात करता है और लोकतांत्रिक मूल्यों दुहाइयां देने लगता है। फिर जब वह मजबूत होता है और दूसरा पक्ष कमजोर पड़ता है तब दूसरा वाला पक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों की चर्चा करने लग जाता है। किन्तु कोई भी दल कभी भी अपनी पार्टी या अपनी सरकार में लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन नहीं करता है।
पहले हम दलों की बात कर लें तो अधिकांश दलों में आंतरिक लोकतंत्र खत्म के करीब है। चाहे जिलाध्यक्ष की नियुक्ति करनी हो या राज्य स्तरीय अथवा राष्ट्रीय कमिटी का गठन करना हो या फिर चुनाव के समय उम्मीदवार के चयन का मामला हो, हर पार्टी के एक या दो-चार लोग मिलकर यह निर्णय ले लेते हैं कि कौन जिलाध्यक्ष होगा या कौन-कौन राज्य अथवा राष्ट्रीय कमिटी का सदस्य होगा या फिर कौन-कौन लोग विधायक का चुनाव लडेंगे या कौन-कौन लोग सांसद का चुनाव लडेंगे। ऐसे सभी मामलों में पार्टी सुप्रीमो की तरफ से एक लिस्ट जारी कर दी जाती है और वही निर्णय मानने के लिए सब लोग बाध्य हो जाते हैं। ऐसे अवसरों पर अगर कोई नेता सुप्रीमो के निर्णयों का विरोध करता है, लोकतांत्रिक मूल्यों की बातें करता है तो उसे पार्टी-विरोधी करार देकर पार्टी से निकाल दिया जाता है।

किसी भी पार्टी में जिलाध्यक्ष या राज्य कमिटी अथवा राष्ट्रीय कमिटी अथवा चुनाव के लिए उम्मीदवारों को चुनने की कोई लोकतांत्रिक एवं पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। सब सुप्रीमो की अनुशंसा पर निर्भर करता है। इसलिए पार्टी के जिला एवं राज्य स्तरीय नेता पार्टी के संदेश को लेकर गांव-मोहल्लों में जाने के बजाय सुप्रीमो की गणेश-परिक्रमा करना बेहतर समझता है। उन सबको पता चल चुका है कि आम लोगों के बीच जाकर पार्टी के संदेशों को फ़ैलाने में समय खराब करके कोई फायदा नहीं है। ऐसा करने वालों को न पार्टी में पद मिलता है और न ही चुनाव में टिकट। इसलिए पार्टी के सभी कार्यकर्ता पार्टी के सुप्रीमो के आस-पास ही मंडराते रहने को राजनीति मानने लगे हैं। वे आम जनों के बीच जाकर नए लोगों को पार्टी एवं अपनी विचारधारा से जोड़ने के काम को उपयोगी नहीं समझते हैं। इससे पार्टियों कमजोर और अलोकप्रिय भी होती हैं, और इन सबके लिए मुख्य रूप से पार्टी सुप्रीमो ही जिम्मेदार है जो किसी तरह एक बार पार्टी का मुखिया या सरकार का मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन गया, उसके बाद उसने पार्टी अथवा सरकार को 'वन मैन शो' बना दिया।

बिहार की बात करें तो राजद का जिलाध्यक्ष कौन होगा, यह निर्णय जिला, प्रखंड, पंचायत एवं गांव के राजद कार्यकर्ता अथवा पदाधिकारी नहीं करते हैं बल्कि यह निर्णय लालू जी का परिवार और उस परिवार के आस-पास रहने वाले दो-चार लोग मिलकर ले लेते हैं। राजद की राज्य कमिटी में कौन-कौन होगा? राष्ट्रीय कमिटी में कौन-कौन होगा ? संसदीय बोर्ड में कौन-कौन होगा ? चुनाव में कौन-कौन उम्मीदवार होंगे ? यह सब लालू जी का परिवार एवं उसके आस-पास रहने वाले अन्य दो-चार लोग मिलकर तय कर देते हैं। कहीं कोई लोकतंत्र और पारदर्शिता नहीं है।

ठीक ऐसा ही हाल नीतीश जी की पार्टी जदयू में भी है। वहां भी ऐसे सारे निर्णय दो-चार लोग मिलकर ही ले लेते हैं। लोजपा एवं अन्य छोटी पार्टियां भी ऐसा ही करती हैं।

यूपी में अखिलेश जी एवं मायावती जी का भी हाल बिल्कुल ऐसा ही है। सपा एवं बसपा के भी सारे निर्णय ऐसे ही तानाशाही रवैये से लिए जाते हैं। बंगाल में ममता दी भी अपनी पार्टी और सरकार इसी स्टाइल में चलाती हैं।

कांग्रेस में भी ऐसे सारे निर्णय गांधी परिवार और उनकी किचन कैबिनेट लेती है। लोकतंत्र की दुहाई दे-देकर दिल्ली और पंजाब में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी में भी ऐसे सारे निर्णय अब केजरीवाल जी और उनके दो-तीन साथी मिलकर ले लेते हैं।

कहीं किसी पार्टी के भीतर कोई लोकतंत्र या पारदर्शिता नहीं है। 

जिन लोगों ने अपनी पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों एवं पारदर्शिता को ताख पर रख दिया, क्या आपको लगता है कि ऐसे लोग जिस भी सरकार में रहेंगे, वहां लोकतांत्रिक मूल्यों और पारदर्शी तरीके से सरकार चलाएंगे ? 

मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से पहले तक भारतीय जनता पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र अन्य पार्टियों की तुलना में ज्यादा दिखा। निर्णयों में सामूहिक भागीदारी ज्यादा दिखी। उसी का परिणाम है कि भारतीय जनता पार्टी आज देश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। केन्द्र सहित देश के अधिकतर राज्यों में उसकी सरकारें है। यहां तक पहुंचने में उसे काफी समय लगा।

लेकिन मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा के आन्तरिक लोकतंत्र में भी तेजी से गिरावट आई। पिछले 10 सालों में पार्टी एवं सरकार पर मोदी जी की तानाशाही का वर्चस्व बढ़ा। हालांकि अब भी भाजपा में अन्य पार्टियों की अपेक्षा सामूहिक भागीदारी ज्यादा है, अन्यथा #गडकरी जी को टिकट नहीं मिलता। प्रधानमंत्री मोदी जी के नहीं चाहने के बावजूद गडकरी जी को टिकट मिलना इस बात का प्रमाण है कि मोदी जी की तानाशाही में तीव्र वृद्धि के बावजूद अब भी भाजपा में सामूहिक भागीदारी का प्रभाव अन्य पार्टियों से ज्यादा है। 

अन्य पार्टियों में, जैसे कांग्रेस में अगर राहुल गांधी किसी को टिकट न देने के लिए अड़ जाएं या जदयू में नीतीश जी अथवा राजद में तेजस्वी जी या सपा में अखिलेश जी अथवा तृणमूल में ममता बनर्जी या आम आदमी पार्टी में केजरीवाल जी अगर अड़ जाएं कि वे अपनी पार्टी से किसी ख़ास साथी को टिकट नहीं देंगे तो फिर पार्टी के भीतर की कोई भी व्यवस्था उस आदमी को टिकट नहीं दिला सकती है।

हकीकत यही है कि सभी पार्टियां अपनी-अपनी जरूरत और सुविधा के अनुसार आम जनता को भरमाने-फुसलाने के लिए भाषणों में लोकतांत्रिक मूल्यों और पारदर्शिता की बातें तो जरूर करती हैं पर असल मायनों में कोई भी उसका अनुशरण नहीं करता है।

लोकतांत्रिक मूल्यों एवं पारदर्शिता के घोर अभाव से गुजर रही भारतीय राजनीति के इस दौर में हर राजनैतिक दल के लिए यह एक अवसर भी है कि जो कोई भी अपनी पार्टी के भीतर लोकतंत्र और पारदर्शिता को थोड़ा भी मजबूत करेगा उसकी लोकप्रियता में तुरंत इजाफा होगा।

(धनंजय कुमार सिन्हा एक राजनीतिक विश्लेषक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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