विशेष | ध्रुव गुप्त (सेवनिवृत आईपीएस) :सर्दी का मौसम आज की पीढ़ी के लिए डिज़ाइनर फैशन के नए-नए ईजाद आजमाने के दिन हैं। पुरानी पीढ़ी के लिए ये मोटे कंबलों और चादरों को देह में लपेटकर सर्दी से लड़ने की चुनौती है। अभी कुछ ही दशकों पहले तक थर्मल, जैकेट, हीटर और बब्लोवर्स की पहुंच शहरों के सुविधासंपन्न लोगों तक ही थी।
ग्रामीण और शहरी आमजन के पास तब सर्दी से मुकाबले के कुछ सस्ते, पारंपरिक, लेकिन कारगर तरीके हुआ करते थे। गांती उनमें से एक थी। कैसी भी सर्दी से बचने का फूल प्रूफ तरीका। गांवों के गरीब घरों में अब भी यह कहीं-कहीं दिख जाता है, लेकिन शहरों और कस्बों से यह गायब है। गांती हाट-बाजार में नहीं बिकता था। हर घर में यह बना-बनाया मिल जाता था। बस इसे बांधने का हुनर सीखना पड़ता था।
(ध्रुव गुप्त, सेवनिवृत आईपीएस) |
इसकी सामग्री होती थी घर में बाबूजी की कोई पुरानी धोती या गमछा, मां की कोई पुरानी साड़ी, बहनों के फटे शाल या बिस्तर से खारिज फटी-पुरानी कोई चादर। उसे सिर पर लपेटने के बाद उसके दोनों खूंटों को गर्दन से बांध दिया जाता था। कपड़े का बाकी हिस्सा देह के हर तरफ सलीके से लटका दिया जाता था। यह सिर, कानों, गर्दन और सीने को सर्दी से ऐसी सुरक्षा देता था कि सर्दी तो क्या, सर्दी का भूत भी भीतर प्रवेश न कर सके।
बच्चों के लिए गांती सर्दी के खिलाफ कपड़े का एक टुकड़ा भर नहीं होता था। मांओं , दादियों का दुलार, वात्सल्य और उनकी चिंताएं भी लिपटी होती थीं उसमें। हमारी पीढ़ी ने कपड़े के उसी टुकड़े के सहारे सर्दियों के पहाड़ काटे थे। अब के थर्मल, स्वेटर, कोट और जैकेट मिलकर भी गर्मी का वह अहसास नहीं दे पाते।
अब गांती भले ही गंवार होने की निशानी समझी जाय, लेकिन तेज सर्दियों में अब भी उसे बांध लेने की प्रबल इच्छा होती है। क्या करें कि उसे बांधने का सलीका हमारी मांओं के साथ ही चला गया।
(रिपोस्ट)
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