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जातिवाद आर्यन वर्ण व्यवस्था की देन, इसकी आड़ में सदियों तक शोषण का लम्बा सिलसिला चला : धनंजय

 


पटना, 2 दिसंबर : भारत में जातिप्रथा की नींव रंगभेद से रखी गई। आर्यों की चमड़ी का रंग गोरा था। जब आर्य भारत आए, तब यहां पूर्व से रह रहे आदिवासी एवं अन्य काली चमड़ी वाले लोगों को आर्यों ने अनार्य का नाम दिया। रंग के आधार पर समाज के दो भाग हो गए - आर्य और अनार्य।


उसके बाद समाज को कार्य के आधार पर चार वर्णों में विभक्त किया गया - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बाद में ये वर्ण कई-कई जातियों एवं उपजातियां में बंट गए। 


ब्राह्मण मुख्य रूप से वे कहलाते थे जिन्हें वेदों का ज्ञान होता था और जो शिक्षण एवं पूजा-पाठ जैसे कार्यों में संलग्न रहते थे। युद्ध में रूचि रखने वाले समाज-रक्षक क्षत्रिय कहे जाते थे। व्यापार से जुड़े लोग वैश्य एवं शारीरिक श्रम करके खाने-कमाने वाले मजदूर जैसे लोग शुद्र कहलाए। 


इस वर्ण व्यवस्था के शुरूआत के वर्षों में वर्ण-बदलाव या वर्ण-परिवर्तन जैसे विकल्प उपलब्ध थे। तब यह वर्ण विभाजन कार्य एवं रूचि के आधार पर हुआ करता था। अगर किसी ब्राह्मण का पुत्र युद्ध में रूचि रखने वाला श्रेष्ठ योद्धा हो जाता था, तो वह क्षत्रिय वर्ण का माना जाने लगता था। उसी प्रकार अगर किसी क्षत्रिय या ब्राह्मण का पुत्र वैश्य या शुद्र से जुड़े कार्यों को करने लगता था, तो उसे समाज में वैश्य अथवा शुद्र माना जाने लगता था।


किंतु साधारणतः स्थितियां ऐसी होने लगीं थीं कि अधिकांश मामलों में ब्राह्मणों के पुत्र ब्राह्मण जाति से जुड़े कार्यों में ज्यादा निपुण हो जाते थे, क्योंकि बचपन से ही उन्हें वैसे माहौल में रहने-समझने का मौका मिलता था। बहुत कम ही ऐसे मामले देखने को मिलते थे कि ब्राह्मण के पुत्र ने वैश्य से जुड़े कार्यों को अपना लिया और वैश्य हो गए। इसी प्रकार के मामले अन्य जातियों एवं उपजातियों में भी थे। बढ़ई का बेटा आसानी से बढ़ई का काम सीख जाता था। लुहार का बेटा आसानी से लुहार का काम सीख जाता था। बहुत ही कम ऐसे मामले होते थे कि वैश्य का पुत्र योद्धा हो गया अथवा वेदों के ज्ञान में रूचि रखने वाला बन गया और ब्राह्मण जाति का माना जाने लगा। इस प्रकार धीरे-धीरे जाति का आधार कर्म की जगह जन्म माना जाने लगा। 


इस परिवर्तन को आप परिवारवाद के वर्तमान मॉडल को देखकर भी महसूस कर सकते हैं। राजनीति हो या बॉलीवुड - ज्यादातर मामलों में नेता और अभिनेता के बेटे-बेटियां ही नेता और अभिनेता बन रहे हैं जबकि ऐसा कोई फिक्स्ड रूल नहीं है। अनेक लोग अपवादस्वरूप भी नेता और अभिनेता बन रहे हैं जिनके माता-पिता नेता या अभिनेता नहीं हैं। पर नेता और अभिनेता के बेटे-बेटियों को नेता या अभिनेता बनने में काफी आसानी हो रही है जबकि अन्य को इसके लिए काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।


इस तरह धीरे-धीरे कर्म पर आधारित जाति-विभाजन जन्म पर आधारित जातिवाद हो गया जिससे आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी हमारा समाज निजात नहीं पा सका है।


जब जातिप्रथा कर्म पर आधारित थी, तब आप इसे वर्तमान के फर्स्ट ग्रेड अफसर से लेकर फोर्थ ग्रेड कर्मचारी के रूप में महसूस कर सकते हैं कि जैसी जिसकी काबिलियत होगी, वैसा उसे मान-सम्मान और मेहनताना मिलेगा, और सबको कर्म और मेहनत के बल पर ऊपर उठने के अवसर उपलब्ध थे। 


किंतु बाद के समय में जब जातिप्रथा जन्म पर आधारित हो गई, तब ब्राह्मण का बेटा अगर जुआरी और कुकर्मी भी निकल गया तो भी समाज में उसे ब्राह्मण ही माना जाने लगा, और अगर वैश्य अथवा शुद्र का बेटा वेदों का ज्ञाता भी हो गया तो भी उसे वैश्य या शुद्र ही माना जाता रहा। इस प्रकार कार्य के आधार पर किया गया जाति-विभाजन जन्म पर आधारित जातिवाद बन गया।


फिर जातिवाद के नाम पर कई शतकों तक शोषण का एक लम्बा सिलसिला चला।


स्वतंत्र भारत की राजनीति में भी जातिवाद का इस्तेमाल अमोघ अस्त्र की तरह किया गया। पहले अगड़ी मानी जाने वाली जातियों ने राजनीति में इसका दुरूपयोग किया। देखा-देखी फिर पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों ने भी सत्ता पाने के लिए इसका दुरूपयोग करना शुरू कर दिया। 


फिर जातिवाद के किले को भेदने के लिए भारतीय राजनीति में धर्म-कार्ड प्रभावी हुआ। वर्तमान में जाति-प्रथा और धर्मवाद - दोनों ही सामाजिक बुराइयों के रूप में हमारे देश में मौजूद हैं जिसने अनेकों युवाओं को अपने जाल-फांस में उलझा रखा है। 


जाति प्रथा और धर्मवाद - दोनों ही अपने-अपने चरम के आस-पास तक पहुंच चुके हैं। आने वाले कुछ दशकों में दोनों का भांडा फूटेगा और मानवतावाद में तेजी से उछाल देखा जायेगा।



(यह आलेख शिक्षाविद एवं स्वतंत्र पत्रकार धनंजय कुमार सिन्हा के द्वारा लिखा गया है। इसमें व्यक्त किए गए विचार एवं तथ्य लेखक के निजी तौर पर उपलब्ध किए गए तथ्य एवं विचार हैं।)

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