संपादकीय : हिन्दी पत्रकारिता दिवस : पत्रकारिता में भी प्रहसन पर सत्य शोधन की विजय सुनिश्चित है - gidhaur.com : Gidhaur - गिद्धौर - Gidhaur News - Bihar - Jamui - जमुई - Jamui Samachar - जमुई समाचार

Breaking

Post Top Ad - Contact for Advt

Post Top Ad - Sushant Sai Sundaram Durga Puja Evam Lakshmi Puja

रविवार, 30 मई 2021

संपादकीय : हिन्दी पत्रकारिता दिवस : पत्रकारिता में भी प्रहसन पर सत्य शोधन की विजय सुनिश्चित है

संपादकीय [शुभम मिश्र, सह संपादक - gidhaur.com] : प्रत्येक वर्ष आज की तारीख को हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़ा ही ऐतिहासिक माना जाता है।आज ही के दिन अर्थात 30 मई, 1826 ई. को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारतवर्ष की सरज़मीन पर उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल के द्वारा कलकत्ता से प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन आरंभ किया गया था। उदन्त मार्तण्ड नाम, उस समय की सामाजिक परिस्थितियों का संकेतक था, जिसका अर्थ है- ‘ उगता हुआ सूर्य ’।

यूं तो साप्ताहिक समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के पूर्व राजा राम मोहन राय ने सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ा और भारतीयों के सामाजिक,धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया, लेकिन इसे व्यवस्थित रूप से चलाने का श्रेय जाता है युगल किशोर शुक्ल को।अंग्रेजी हुकूमत का वो बर्बर दौर, जिसमें भारतीय जनमानस गुलामी की मानसिकता में पूर्ण दीक्षित हो चुका था, उस वक्त किसने यह कल्पना की होगी कि, 30 मई 1826 ई. को रोपित हिंदी पत्रकारिता का यह बीज,भविष्य में इतना बड़ा स्वरूप ग्रहण कर लेगा और कभी लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ के रूप में परिभाषित किया जायेगा !

आजादी की जंग से लेकर भारत में लोकतंत्र के निर्माण तक हिंदी पत्रकारिता का योगदान अतुलनीय रहा। 30 मई 1826 ई. के बाद से सांस्कृतिक जागरण, साहित्यिक सरोकार, राजनीतिक चेतना और दमन का प्रतिकार, इन चार पहियों के रथ पर सवार हो, हिंदी पत्रकारिता अग्रसर हुई। अंग्रेजों की दासता में बर्बादी और अपमान झेलते भारत की दुर्दशा के कारणों की पहचान भारतेंदु काल से ही शुरू हो गई थी, इसे गहराई से लोकमान्य तिलक ने राजनीतिक और सांस्कृतिक सरोकारों से जोड़ दिया।

इसी दरम्यान भूमिगत पत्रकारिता भी अपने कौशल से इंकलाब को रोशन कर रही थी।किंतु महात्मा गांधी के सत्याग्रही नेतृत्व ने कुछ भी भूमिगत नहीं रहने दिया और पत्रकारिता ने भी इस साहस को अपने प्राणतत्व के रूप में मंजूर किया। इसका ज्वलंत उदाहरण बना गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘ प्रताप ’अखबार। यह कानपुर से छपता था।
इसी परंपरा में उस समय देश के कई हिस्सों से डंके की चोट पर हुक्मरानों की बर्बरता, सामाजिक कुरीतियों और रूढिय़ों के खिलाफ संपादकीय और समाचार प्रकाशित होने लगे।

सच कहें तो यही वह दौर था जब पत्रकारिता के जम्हूरियत में चौथे खम्भे का दर्जा प्राप्त करने की बुनियाद पूर्णतः पड़ गई थी। दीगर है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं.गणेश शंकर विद्यार्थी,मुंशी प्रेमचंद, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख और हास-परिहास आज हमें अलभ्य हो रहे हैं। 

भारत की आजादी के बाद क्रांति का ज्वार भी उतरने लगा। समाज के परिवर्तित स्वरूप के साथ ही पत्रकारिता का रूप भी बदलने लगा। शनै: शनै: पत्रकारिता पूंजीवादी कलेवर में ढलने लगी और अपने उद्दात आदर्शों से विमुख होने लगी।बेशक आजादी की जंग में प्रेस ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया था, किन्तु कभी सामाजिक परिवर्तन को आधार भूमि प्रदान करने वाली पत्रकारिता आज पूंजी के आंगन में बंदी है। बदलते तेवरों के साथ पत्रकारिता के अंदाज भी बदलने लगे हैं।
इन दिनों सत्याग्रह से प्रारम्भ हुई पत्रकारिता द्वारा सत्यशोधन का प्रयास बदस्तूर जारी है, किंतु पत्रकारिता जगत के मूल्यों में तरलता बड़ी आवृत्ति में परिलक्षित हो रही है। सवाल है कि, कैसा प्रेस और कैसी उसकी स्वतंत्रता..? जब सब कुछ बाजार के द्वारा नियंत्रित हो रहा है। दरअसल पूंजीपतियों, अपराधियों,सफेदपोशों ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के मूल तेवर को जमकर प्रभावित किया है।

वहीं अखबारों,पोर्टलों,इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने गांवों तक प्रवेश करके आम जनमानस को ताकतवर बनाया है। पाठकों और दर्शकों के साथ पत्रकार भी ताकतवर बने। पत्रकारों का रसूख बढ़ा है, पर सम्मान कम हुआ है। पूर्व का ‘ प्रशंसा-भाव ’ बढ़ने के बजाय कम क्यों हुआ ? शायद इसका सबसे बड़ा कारण पत्रकारों की आजीविका का असुरक्षित होना है।आखिर जब असुरक्षित हो आजीविका, तो कैसे आजाद होंगे कंठ और कलम..! यह सर्वविदित है कि मीडिया जगत में वेतन की विसंगतियां बड़े पैमाने पर व्याप्त हैं। पगडण्डी और खड़ंजे से खबर बटोर कर लाने वाले संवाद सूत्र से लेकर रात के अंधेरे में खबरों के जंगल में भटकता उप संपादक महंगाई के इस युग में न्यूनतम वेतन पर अपनी सेवाएं देने को मजबूर है।

वहीं आपको प्रिंट ,इलेक्ट्रॉनिक एवं वेब मीडिया से जुड़े ऐसे बहुतायत पत्रकार मिल जायेंगे, जिन्हें उनका संस्थान वेतन नहीं देता, बल्कि कमाकर लाने का वचन लेता है और बदले में कमीशन देता है। इनमें एक तरफ, माफियाओं के खौफ, दबगों की नाराजगी, और पुलिस की हिकारत जैसी विपरीत परिस्थितियों का सामना करके खबरें भेजने वाले पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर पत्रकारिता के इकबाल को बुलंद किया है, जैसे बिहार के बहुचर्चित पत्रकार हत्याकांडों में शुमार राजदेव रंजन जो हिन्दुस्तान के पत्रकार थे, उनकी गोली मार कर हत्या सीवान में की गई थी ,नवीन निश्चल एवं विजय सिंह जो क्रमशः दैनिक भास्कर एवं अन्य पत्रिका के पत्रकार थे।इन दोनों की हत्या वाहन से रौंद कर भोजपुर में की गई ,देश के बहुचर्चित पत्रकार हत्याकांडों में एक गौरी लंकेश हत्याकांड बैंगलोर में हुआ था,इस वर्ष मई के पहले सप्ताह में मुन्ना सिंह हत्याकांड जो एक निजी चैनल के पत्रकार थे।इनकी हत्या हाजीपुर में की गई।

जैसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्हें खबर लिखने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है।तो दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी पत्रकार हैं, जो सरकारी मुलाजिम द्वारा परेशानी से बचने के लिए प्रेस का कार्ड जेब में रखते हैं।वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो पत्रकारिता की आड़ में वसूली, ब्लैकमेलिंग और दूसरे अपराधों को चलाते हैं।

खैर, उत्थान और अवसान की यह जंग चलती रहेगी। कलमकार, तमाम दुश्वारियों के बावजूद अपनी कलम से इंकलाब लिखता रहेगा, तो कहीं खबरों का सौदा, पत्रकारिता के आदर्शों को सरे-बाजार नीलाम करेगा। लेकिन वक्त की पेशानी पर साफ-साफ हर्फों में, अंधेरे पर उजाले की जीत का ऐलान लिखा जायेगा...लिहाजा कह सकते हैं कि पत्रकारिता जगत में भी प्रहसन पर सत्य शोधन की विजय सुनिश्चित है।

Post Top Ad -