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सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिंदी दिवस पर विशेष : विदेशी भाषा के लिए अपनी मातृभाषा को भूलना उचित नहीं

विशेष | अक्षय कुमार :
हम तो खामखा ही हिंदी को भाषा कह रहे हैं, यह तो भावों की  अभिव्यक्ति है. विश्व के सबसे विशालतम देशों में से एक भारतीय उपमहाद्वीप के जनमानस के ह्रिदय की पुकार है तभी तो लगभग आठ नौ सौ साल कभी तुर्कों के, कभी अफगानों के, कभी मुगलों के तो कभी अंग्रेजों के गुलाम रहने के बाद भी विश्व की चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. इसे बोलने वालों की संख्या लगभग सौ करोड़ से भी ऊपर है. 
अगर भाषाओं के इतिहास को देखें तो संस्कृत को भाषाओं की जननी कहा गया है. दुनिया की लगभग सारी भाषाएँ संस्कृत की कोख से अवतरित हुई है. हिंदी उसी संस्कृत माँ की सबसे प्रिय पुत्री है. 
हिंदी के कवियों, लेखकों, उपन्यासकारों का नाम विश्व साहित्य में शीर्ष स्थान पर शुमार है. इतिहास को छोड़ अगर हम आधुनिक युग की बात करें तो रामधारी सिंह 'दिनकर' जिनकी राष्ट्रवादी कविताएँ देश की राजनीति में उथल पुथल मचा देती थी उन्हें उनकी हिंदी कविताओं के लिए राष्ट्रकवि की उपाधी दी गई. मैथिली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन जैसे रचनाकारों ने हिंदी को एक ऐसा आयाम प्रदान किया जिसके बलबूते हिंदी आज विश्वभाषा बनने की ताकत रखती है. हिंदी के महान कवि डॉ. रवीन्द्र नाथ टैगोर को उनकी काव्य पुस्तक 'गीतांजलि' के लिए विश्व सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार 'नोबेल पुरस्कार (साहित्य)' से सम्मानित किया गया. विश्व की सबसे प्राचीन महाकाव्य रामायण को सबसे पहले टीकाबद्ध करने वाला भी हिंदी का ही एक बेटा गोस्वामी तुलसीदास थे जिन्होंने हिंदी को अमर बना दिया. 
इतना गौरवशाली होने के बावजूद हिंदी का वर्तमान उतना प्रकासमयी नहीं जितना इसे होना चाहिए. इसका कारण भी इसके ही बच्चे हैं. हिंदी के दर्द भरे वर्तमान का ठेकरा अगर किसी विदेशी शक्तियों पर फोड़ा गया तो यह बिलकुल वही बात हो जाएगी "एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी". हिंदी के इस वर्तमान का जिम्मेदार हम स्वयं हैं. बस दिखावे मात्र के लिए हम फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलना प्रारंभ कर देते हैं. ऐसा नहीं है कि हमें अंग्रेजी नहीं पढ़ना चाहिए लेकिन किसी विदेशी भाषा के लिए हम अपनी मात्िर भाषा को भूल जाएँ यह कतई ऊचित नहीं है. देश के युवा को बस अपना प्रभाव जमाना है उसके लिए चाहे देश की सभ्यता और संस्कृति भांड़ में क्यूँ न चली जाए. 
लोकल ट्रेन के डब्बों में लिखा होता है "हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा" लेकिन ये बस लिखने के लिए होता है. जिस देश में वहाँ की मात्रिभाष यानि हिंदी में बात करने के लिए दो दबाना पड़ता है, तो उसका असर युवाओं पर तो दिखेगा ही न. हमारी मानसिकता यह हो गई कि अगर को दो पंक्ति भी अंग्रेजी जानता है तो वह बहुत ही मेधावी है, अौर कोई अच्छा से हिंदी जानता है तो कहेंगे इससे क्या होने वाला है, बिना अंग्रेजी के नौकरी थोड़े न मिलेगी.

श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेयी जी ने कहा है :

बनने चली विश्व भाषा जो,
अपने घर में दासी,
सिंहासन पर अंग्रेजी है,
लखकर दुनिया हांसी,

लखकर दुनिया हांसी,
हिन्दी दां बनते चपरासी,
अफसर सारे अंग्रेजी मय,
अवधी या मद्रासी,

कह कैदी कविराय,
विश्व की चिंता छोड़ो,
पहले घर में,
अंग्रेजी के गढ़ को तोड़ो

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