ज्योतींद्र मिश्र (हिंदी के शीर्षस्थ साहित्यकार, गीतकार एवं गिधौरिया बोली के प्रख्यात कवि) :
बलवारे के बलदेव
ईस्टर्न रेलवे का एक स्टेशन है जमुई ।लेकिन यह मलयपुर गाँव में अवस्थित है।इस गांव से जमुई जिला मुख्यालय की दूरी 5 किलोमीटर है।
इस गांव का एक टोला है बलवारे ।इसी टोले के संपन्न किसान थे अगस्त क्रांति के स्वतंत्रता सेनानी मग द्विज बलदेव वैद्य । भारद्वाज गोत्रीय वैद्य के इस विशाल परिवार में जब मेरी शादी हुई तो फ्रीडम फाइटर की कीर्त्ति पताका का कई बार उपयोग किया गया। आप एक सच्चरित्र ,कर्मठ, और कठोर अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे।माना जाता था कि इनके आंगन की लड़कियाँ और दालान के लड़के अनुशासित होंगे ही होंगे । कई पीढ़ियों तक इनके भाई भतीजों ने इनके चरित्र बल को भुनाया। मलयपुर का मुखिया होने के कारण दबदबा भी था। उनकी उपस्थिति में उनके दालान के आगे से गुजरना बेअदबी मानी जाती थी। 1971 में इस दालान पर शीश झुकाने का मौका मुझे भी मिला। जब भी ससुराल गये ,मेरे श्वसुर पण्डित हीरा लाल वैद्य उन्हें प्रणाम करने के लिये अवश्य भेजते थे। 1972 में जब उन्हें भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री ने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में ताम्र पत्र देकर सम्मानित किया तब एक बार फिर वे स्थानीय समाचार पत्रों की सुर्खियों में आये तब मुझे भी गौरवान्वित होने का गुमान हुआ था। इस सम्मान योजना में मेरे गाँव माँगोबन्दर के सेनानी जगदीश लोहार भी शामिल हुए थे।
1971 से लेकर 1982 तक यदा कदा उनका दर्शन मलयपुर जाने पर होता ही रहता था। मेरे ससुर जी के वे चाचा थे लेकिन वे पिता की तरह ही चाचा से व्यवहार रखते थे। इस कारण उनके दालान पर हमें भी सहमते हुए जाना पड़ता था। मुझे एक घटना का स्मरण है कि ससुराल में ही मैं बुखार से पीड़ित हो गया। तब उन्होंने मुझे दवा दी थी और दूसरे दिन मैं ठीक भी हो गया था।

उनकी वैदगिरी खूब चलती थी और दूर दूर के रोगी उनके चमत्कारिक इलाज की कहानियाँ सुनकर पहुंचते थे।
उनकी विदुषी पौत्री डॉ लक्ष्मी मिश्रा द्वारा आलेखित सूचना के अनुसार 10 अप्रैल 1908 में रामनवमी के दिन उनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम मुरलीधर वैद्य और माता का नाम विंदु वासिनी देवी था। अच्छी खेती बाड़ी भी थी ,वैदगिरी का खानदानी पेशा भी था ।इसी कारण इनके वंशजों ने वृत्ति वोधक उपनाम वैद्य रखा था जिसे नवाचारी युवकों ने मिश्र में बदल दिया। इस गाँव से दक्षिण दिशा में आँजन नदी के पार अवस्थित जमुई बाजार तब मुंगेर जिला का सब डिविजन था। इसी सब डिवीजन में अंग्रेजी राज का बना हुआ हाई स्कूल भी है। इसी स्कूल से 1924 ई में बलदेव वैद्य जी ने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की। हास्य रसावतार पण्डित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी जी के सुपुत्र रामा वल्लभ चतुर्वेदी जी इनके मित्र थे। हिन्दी साहित्य के विद्वान मित्र जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी जी से परिचित होंगे। उनका ननिहाल इस गाँव में है। चतुर्वेदी जी ने अपनी सामाजिक चेतना के बूते एक घराना बना लिया था ।जिसे चौबे घराना कहा जाता है। इस वस्ती में राजपूतों की भी बहुलता है ।विधान परिषद के तत्कालीन सभापति श्यामा प्रसाद सिंह का परिवार बड़का घरेना कहलाता है। बड़का घरेना के समानांतर चौबे घरेना का होना बाबू साहबों को कुबूल नहीं था। बलदेव वैद्य जी चौबे घरेना के सम्पर्क में थे।
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(ज्योतींद्र मिश्र) |
पूरे चार साल बाद यानि 1946 में इन्हें छोड़ा गया।
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिलने पर ही इन्हें चैन मिला ।चूंकि तब कांग्रेस ही क्रांति की अगुआई कर रही थी अतः बलदेव जी भी कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य थे।

अपनी स्पष्ट वादिता, ईमानदारी और जनसेवा के कारण समूचे जमुई अनुमंडल में लोकप्रिय व्यक्ति के रूप में समादृत थे।
जब 1950 में संविधान लागू हुआ और 1952 में देश में पहला चुनाव हुआ तो आप भी बिहार विधान सभा के लिए प्रत्याशी के बतौर कांग्रेस कमिटी में अपनी दावेदारी की। लेकिन तब कांग्रेस के स्थानीय बड़का घरेना के वरिष्ठ सदस्य ने पेंच फंसा दिया । चूंकि उक्त घरेना को एक यस मैन चाहिए था ।सो इन्हें तोड़ जोड़ कर हरा भी दिया।
लेकिन जनप्रतिनिधि के रूप में एक लंबे अरसे तक पंचायत के मुखिया के पद को सुशोभित करते रहे।
जब 1974 में जे पी ने सम्पूर्ण क्रांति की उद्घोषणा की तो क्रांतिदर्शी सेनानी ने जे पी का ही साथ दिया और अपनी सक्रियता दर्शायी। आपने आपात काल का भी पुरजोर विरोध किया था। इस वक्त भी इनका वह दालान एक बार फिर दीप्त हो उठा और स्थानीय नेताओं की गतिविधियों का केंद्र बना ।।इस आलेख के साथ उनके कमरे और दालान का भी फोटो संलग्न है जो सेनानी की दास्ताँ खुद कह रही है कि इस देश ने, इस समाज ने, उनके परिवार ने एक स्वतंत्रता सेनानी की स्मृति के साथ कितना न्याय किया है। ऐसा नहीं है कि बलदेव वैद्य का नाम मुंगेर गजेटियर में नहीं है। अगस्त क्रांति की पुस्तक में भी इनका नाम दर्ज है। कुछ वर्ष पूर्व लक्ष्मीपुर ब्लॉक में इनकी प्रतिमा लगाने का कार्यक्रम भी बना था।
इनकी मृत्यु 27 जुलाई 1982 को तुलसी जयंती के दिन अपने पैतृक आवास पर ही हुई।वे इस जगत के मंच पर अपने हिस्से का उत्तरदायित्व तो पूरा कर गये लेकिन उनके दालान की दीवारों को फाड़ कर उगा हुआ जीवट पेड़ कह रहा है कि देखो इस दालान के गारे में एक पेड़ को उगाने टिकाने और हरा भरा रखने की कूबत अभी भी है।
सूचना संकलन : डॉ लक्ष्मी मिश्रा
चित्र सौजन्य : श्री संजय मिश्र
(अगस्त क्रांति के सेनानी को स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 2020 की पूर्व संध्या पर याद करते हुए।)