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पैरेंट्स और शिक्षक शिक्षा के प्रति उतना भी आकर्षण पैदा नहीं कर पाते, जितना फुटबॉल कर लेता है


पैरेंट्स और शिक्षक बच्चों में शिक्षा के प्रति उतना भी आकर्षण पैदा नहीं कर पाते, जितना कि एक निर्जीव फुटबॉल कर लेता है

(धनंजय कुमार सिन्हा द्वारा लिखा गया यह आलेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)


बच्चे खुश हैं कि इन दिनों स्कूल जाने की झंझटों से मुक्त हैं, लॉक डाउन खुलते ही उन्हें दुखी करने का जिम्मा स्कूलों ने हम पैरेंट्स को दिया है, और पैरेंट्स खुश होते हैं बच्चों को उस दिन भी स्कूल भेजकर, जिस दिन वे बिल्कुल भी नहीं जाना चाहते। इसके लिए पैरेंट्स बच्चों पर प्रलोभन से लेकर भय तक के समस्त उपायों का इस्तेमाल करते हैं। बच्चे स्कूलों में कुछ सीखें या न सीखें, पर वे पैरेंट्स के इन प्रलोभन और भय वाले पाठों को जरूर सीख जाते हैं। अन्य अवसरों पर बच्चे भी प्रलोभन और भय जैसे चीजों का इस्तेमाल करने लगते हैं, और फिर धीरे-धीरे ये उनके जीवन के अभ्यासों में समा जाते हैं। फिर कोई स्कूली शिक्षा बच्चों के जीवन से उन नकारात्मक संस्कारों को नहीं मिटा पाता है। 

पैरेंट्स समझते है कि बच्चों के साथ ऐसी सख्ती करके वे बड़ा त्याग कर रहे हैं, पर वे यह नहीं जानते कि हर बार ऐसा करके वे रत्ती-रत्ती भर बच्चों के मन में स्कूली शिक्षा के प्रति त्याग की भावना पैदा कर रहे हैं। पैरेंट्स दो-चार दिन, सप्ताह-महीना का भी संयम नहीं कर पाते। उनकी हड़बड़ी से ही सारी गड़बड़ियां पैदा होती हैं।

पैरेंट्स एवं शिक्षक बच्चों के मन में शिक्षा एवं स्कूल के प्रति आकर्षण पैदा नहीं कर पाते। उससे ज्यादा आकर्षण तो एक निर्जीव फुटबॉल कर लेता है जिसे दुकान पर टंगा देख बच्चा पैरेंट्स से उसे खरीद देने की जिद्द करने लगता है। पर पैरेंट्स और शिक्षक दोनों मिलकर भी बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति उस निर्जीव फुटबॉल जितना भी आकर्षण पैदा नहीं कर पाते।

पैरेंट्स और शिक्षकों की काबिलियतें मिलाकर भी एक निर्जीव फुटबॉल की बराबरी नहीं कर पाती हैं, जबकि हकीकत यह है कि फुटबॉल में तो कोई काबिलियत है ही नहीं, क्योंकि वह निर्जीव है। हां, निर्जीव होना भर को हम उसकी काबिलियत कह सकते हैं। फुटबॉल की काबिलियत शून्य है। इसका मतलब पैरेंट्स एवं शिक्षकों की काबिलियत शून्य से भी नीचे चल रही हैं, नकारात्मक दिशा में बढ़ रही हैं। 

फुटबॉल कभी बच्चों को खेलने के लिए नहीं बुलाता है। फुटबॉल को बच्चे जहां रख देते हैं - बालकनी में, पलंग के नीचे। वहीं वह चुपचाप पड़ा रहता है। बच्चे ही उसे ढूंढ़ निकालते हैं। कभी अगर पैरेंट्स फुटबॉल को छुपा भी दें तो बच्चे जिद्द करने लगते हैं, हल्ला-हंगामा मचा देते हैं। बच्चे ऐसा ही हल्ला-हंगामा स्कूल जाने के लिए मचा सकते थे, पर इसके लिए पैरेंट्स को थोड़ा सचेत और संयमित होने की जरूरत थी, और अगर पैरेंट्स सचेत-संयमित न भी हो पाएं, सिर्फ बच्चों को स्कूल भेजने के मामले में फुटबॉल की तरह अचेत रहें तो भी बच्चा जिद्द करके स्कूल भाग जायेगा।

स्कूल जाने की बातों को फुटबॉल की तरह ही पड़े रहने दीजिए बालकोनी में या पलंग के नीचे, उसे आप बार-बार बाहर निकालने प्रयास मत कीजिए। बच्चे को जब जरूरत महसूस होगी, वह खुद निकाल लेगा उस बात को, वह खुद स्कूल चलने की बात करने लगेगा। पर स्कूल के भीतर भी वातावरण फुटबॉल मैदान जितना ही स्वतंत्रता और अनुशासन वाला होना चाहिए। इन संतुलन का काफी ख्याल रखना पड़ेगा। स्कूल से अगर बीच समय में ही बच्चा घर लौटने की बात कहे तो उसे इसकी भी स्वतंत्रता देनी चाहिए। फिर ऐसा होगा कि जब आप बाजार या अन्य किसी कार्य से बच्चे के साथ कहीं जा रहे होंगे और रास्ते में बच्चे का स्कूल गुजरेगा, तो बच्चा जिद्द करने लगेगा कि मेरे एक शिक्षक स्कूल से सटे कमरे में ही रहते हैं, 5 मिनट उनसे भी मिल लेने दो। बात इतनी तक बढ़ सकती है कि कभी किसी महत्वपूर्ण पारिवारिक विवाह सामारोह में आपको कहीं बाहर जाना जरूरी है, और आपने सपरिवार जाने की सारी तैयारियां कर ली हैं, और बच्चा जाने से इंकार कर दे। वह न जाने के तरह-तरह के बहाने बनाने लगे, वह आपको दलीलें देने लगे कि इस बीच उसे स्कूल अटेंड करना बहुत जरूरी है। आपके बहुत समझाने-बुझाने पर भी शायद वह आपकी बात मानने को राजी न हो, और आपके वापस आने तक सप्ताह भर के लिए स्कूल हॉस्टल में रहने की बात कहने लगे।

अभी तक आप बच्चे को समझा रहे हैं कि स्कूल जाना जरूरी है, और स्थितियां ऐसी पैदा करनी है कि बच्चा आपको समझाए कि सप्ताह भर के लिए स्कूल छोड़ना संभव नहीं है। आपसे पिटाई खाने के बाद भी वह आपके साथ पारिवारिक विवाह सामारोह में जाने को तैयार न हो। तब शिक्षा की असली लय बनेगी।

जब ऐसी स्थितियां बन जायेंगी तब शिक्षा और स्कूल का महत्व बढ़ जायेगा। तब बच्चे सीख रहे होंगे, तब बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे होंगे, आप सिखायेंगे 'चार' तो थोड़ी देर में आप पायेंगे कि वे 'चालीस' सीख गए हैं। लेकिन अभी आप सीखा रहे हैं 'चार' तो वे शायद 'च' भी नहीं सीख पाते हैं। कारण यह है कि अभी सिर्फ आप सीखा रहे हैं, वे सीख नहीं रहे हैं। आप दे रहे हैं, वे उसे डस्टबिन में फेंक दे रहे हैं।

जब बच्चे शिक्षा ग्रहण करने लगेंगे तभी स्कूल उनके लिए असल मायनों में स्कूल होगा, अन्यथा वह स्कूल के कमरे में बैठा रहकर भी स्कूल में न होगा, वह खुद को पिंजरे में बंद जैसा महसूस करेगा। इसलिए जब स्कूलों में छुट्टी होती है तो बच्चा स्कूल से निकल कर जाते हुए कोई दुख महसूस नहीं करता है, बल्कि वह ऐसे चिल्लाते हुए हर्षोल्लास से स्कूल के मेन गेट की तरफ भागता हुआ निकलता है जैसे कि किसी कैद से मुक्ति मिल गई हो। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, धीरे-धीरे स्कूल न जाने के कुछ-कुछ बहाने ढूंढने लगता है।

बाद में जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, जब पैरेंट्स और उनके कंधों की ऊंचाई बराबर हो जाती है तब बच्चे भी संयम नहीं रख पाते। स्कूली शिक्षा उन्हें जबरन थोपी हुई कोई फॉर्मेलिटी जैसी चीज महसूस होने लगती है। शिक्षा के प्रति उनमें अरूचि का भाव आ जाता है, और तब पैरेंट्स जबरन बच्चों को स्कूल नहीं भेज सकते, और अगर किसी तरह भेज भी देते हैं तो उधर से वह पिक्चर हॉल में सिनेमा देखकर लौटता है।

दरअसल आज-कल भारत में स्कूली शिक्षा के जो तौर-तरीके चल रहे हैं, खासकर प्राइवेट स्कूलों के, उसमें पैरेंट्स और शिक्षक बच्चों में सकारात्मक गुणों को विकसित करने की जगह नकारात्मक गुणों को ही ज्यादा विकसित कर देते हैं। इसलिए उनसे अच्छा वह निर्जीव फुटबॉल है, जिसका परिणाम समाज में साफ-साफ देखा जा सकता है। खेल का समय खत्म हो जाने के बाद भी थककर चूर हुआ बच्चा मैदान से हर्षोल्लास के साथ निकल कर घर की ओर नहीं जाता है, बल्कि पैरेंट्स के बार-बार बुलाने के बावजूद थोड़े और समय की मोहलत देने की मांग करने लगता है।

हमें शिक्षा को फुटबॉल की तरह बनाने की जरूरत है। सरकारी स्कूलों की बेतरतीब शिक्षा व्यवस्था निर्जीव फुटबॉल से कुछ मेल खाती है। बस यूं समझ लीजिए कि फुटबॉल तो है पर हवा नहीं है या हवा कम है। हवा कम होने के कारण बच्चे ज्यादा खेल नहीं पाते, पर वहां बच्चों का बिगाड़ता कुछ नहीं, नकारात्मकता नहीं होती, क्योंकि वर्तमान सरकारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था एक हवा भरे फुटबॉल से भी ज्यादा निर्जीव है। उसमें न कुछ बनाने की क्षमता है, और न ही कुछ बिगाड़ने की। सरकारी स्कूल कुछ बनाता नहीं, तो कुछ बिगाड़ता भी नहीं। वर्तमान में यही इसकी खूबी है। इस दौरान प्रकृति बच्चों में कई सकारात्मक भावों को भर देती है। इसे यूं समझिए कि संयोग से सरकारी स्कूलों की अकर्मण्यता बच्चों को प्राइवेट स्कूलों की नकारात्मकता से तो जरूर सुरक्षित कर देती है, और प्रकृति को इस बीच बच्चों को सजाने-संवारने का थोड़ा अवसर मिल जाता है। प्राइवेट स्कूलों में यह अवसर लेने के लिए प्रकृति को तरसना पड़ता है। इतना ज्यादा होमवर्क, फिर घर का ट्युशन - प्रकृति को ज्यादातर समय वेटिंग में खड़े रहना पड़ता है।

अब हमें सरकारी स्कूलों के सुधार पर काम करने की जरूरत है। यह आसान है। यहां नकारात्मक चीजें कम है। बस जरा सी हवा भरने भर की बात है। सरकारी स्कूल को मैच खेलने लायक फुटबॉल बनाना आसान है। प्राइवेट स्कूल्स चूंकि नकारात्मकता की दिशा में काफी कुछ बढ़ गए हैं तो उनमें सुधार थोड़ा मुश्किल है। किंतु अगर एक बार सरकारी स्कूल सुधर गए, तो देखा-देखी प्राइवेट वाले भी सुधार कर लेंगे।

इस पूरे मामले में यह भी समझ लेना जरूरी है कि फुटबॉल के प्रति भी बच्चों के मन में विकर्षण पैदा हो सकता है अगर हमने फुटबॉल को लेकर भी बच्चों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा कि साधारणतः पैरेंट्स और शिक्षक स्कूल के मामलों में बच्चों के साथ करते हैं। अगर एक पैरेंट की चाहत है कि उसका बच्चा एकदम से मैराडोना का रिकॉर्ड तोड़ दे, और इसलिए वह छुटपन से ही अपने बच्चे को तरह-तरह के फुटबॉल खरीदकर लाकर देना शुरू कर दे। शुरू में तो बच्चा उसमें रूचि लेकर कुछ समय, कुछ दिन, कुछ माह खेल सकता है। पर जैसे ही आपने उस छोटे से बच्चे के सुबह के निश्चित तीन घंटे का समय फुटबॉल प्रैक्टिस के लिए सुंदर मैदान में फिक्स कर दिया। घर पर उसे डेढ़ घंटे खुद ट्रेनिंग देने लगे। बीच में घर के अन्य सदस्य भी यह बोलने लगें कि अभी तक ठीक से गोल करना भी नहीं सीखा है, कॉर्नर भी सही से नहीं मार पाते हो। फिर शाम एक अन्य कोच के पास दो घंटा भेज दिया जाए। शुरूआत के कुछ दिन यह पूरा रूटीन ठीक-ठाक भी जा सकता है। पर जब कभी-कभी वह बच्चा न भी जाना चाहे तो भी आप उसे प्रलोभन इत्यादि देकर भेजने की तकनीक का इस्तेमाल करने लगेंगे, तब आप उसे भविष्य में एक बड़े खिलाड़ी बनने का सपना दिखाने का प्रयास करने लगेंगे, बड़े खिलाड़ी बनने के लाभ बताने का प्रयास करने लगेंगे, इसे जरूरी समझाने का प्रयास करने लगेंगे, तो फिर समझिए आप उस निर्जीव फुटबॉल को भी स्कूल बना देंगे। फुटबॉल का खेल भी स्कूल बन जायेगा। धीरे-धीरे फुटबॉल के खेल में भी बच्चे की अरूचि हो जायेगी। मैराडोना की बात तो छोड़िये, संभावना यही रहेगी कि आप उसे जिलास्तरीय खिलाड़ी भी नहीं बना पायेंगे।

अगर आप बच्चे के मन में शिक्षा/स्कूल के प्रति वैसी ही रूचि पैदा करना चाहते हैं, जैसा कि बच्चे की वर्तमान में फुटबॉल के प्रति रूचि है तो पैरेंट्स और शिक्षकों को बच्चों के साथ शिक्षा/स्कूल को लेकर वैसा ही व्यवहार करना होगा जो अभी तक उन्होंने बच्चों के साथ फुटबॉल को लेकर किया है। 

यहां पहले पैरेंट्स और शिक्षकों को मनोवैज्ञानिक कलाएं सीखनी पड़ेंगी। फिर जब एक बार बच्चों में शिक्षा/स्कूल के प्रति रूचि जग गई तो वे इतनी अधिक गति से आगे भागने लगेंगे कि पैरेंट्स और शिक्षक उन बच्चों को सहयोग करने तक में खुद को अक्षम पाने लगेंगे। अब हल्का-फुल्का दिशा देना भर भी काफी है। आपके द्वारा गैर-कलात्मक तरीकों से लगातार ठेलते रहने से बच्चों में ऐसी गति कभी नहीं आ सकेगी। इसलिए पैरेंट्स और शिक्षक ठेलना छोड़ें, शुरूआत के पांचवीं क्लास तक सिर्फ रूचि जगाने को लेकर ही काम करें। उसके बाद तो गाड़ी खुद-ब-खुद चल पड़ेगी। इस समय (पांचवीं कक्षा तक) टेस्ट, परीक्षा, मार्किंग या ग्रेडिंग जैसी बेफजूल चीजों को भी बीच से हटा दिया जाए। ये बेफजूल चीजें पैरेंट्स के साथ-साथ बच्चों के मन में भी प्रतियोगिता जैसी चीजों को पैदा कर देती हैं, और यह भाव जैसे ही अपने संतुलन स्तर से ऊपर उठने लगता है, ईर्ष्या भावना में बदलने लगता है, हीन भावनाएं भी पैदा करता है - पैरेंट्स के भी मन में और बच्चों के भी मन में। बच्चों में आपसी सहयोग भाव का अभाव शुरू होने लगता है। घनिष्ठ मित्रता की संभावना व्यक्ति से क्षीण होने लगती है। फिर यहीं से शिक्षा दूषित होने लगती है।

पर इसके लिए पैरेंट्स और शिक्षकों में काफी समझ और संयम की जरूरत पड़ेगी। किसी बच्चे में थोड़ा पहले रूचि जगेगी, किसी में थोड़ा ज्यादा समय भी लग सकता है। पर हड़बड़ाने से सब गड़बड़ हो जायेगा, जो वर्तमान में हो भी रहा है।