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नदी के छिछले तटों की छाया से, संदर्भ : प्रभात सरसिज की कविताएँ ■ शहंशाह आलम



आलेख : नदी के छिछले तटों की छाया से
संदर्भ : प्रभात सरसिज की कविताएँ
■ शहंशाह आलम

          कविता ग़ुस्से में है
          वह बराबर विषखोपड़े के मस्तक पर
          निशाना साधने की शिक्षा देती है
          कविता बिना हाथ के पैदा हुई थी
          विषखोपड़े को देखते हुए
          उसके कन्धे बस कसमसा कर रह जाते हैं

          कोमल पदावलियों में रमे कवि की सन्तति
          आभासी दुपट्टे पर शायरी लिख रही है
          उनकी आधी आबादी
          एक आँख दबाकर शेष चुहल करती
          आबादी को मटकी मार रही है

          कविता  के कसमसाते कन्धों को देख
          कवि लाल-भभूका हो रहे हैं
          कविता के भावक-श्रेष्ठ पण्डित पाठ्यक्रमों को
          सुनिश्चित कर रहे हैं
          स्वयं को कविता के अभिभावक बताने वाले ये पण्डित
          छायावाद में रीतिकाल की लंगड़ी घुसा रहे हैं
          प्रयोगवाद की कमर में
          प्रतीकों के पायल पहना रहे हैं
          प्रगतिवाद के कानों में
          क्रांति का झुमका गूंथ रहे हैं
          किसी भी अभिभावक की कुलीन दृष्टि
          कविता के कसमसाते कन्धों पर नहीं पड़ती

          कविता के ग़ुस्सैल शब्दों की आहट सुनने से
          कन्नी काट रहे हैं जाली क्रांतिधर्मी

          मुठिया तसील कर कभी आश्रम चलानेवाले
          समाजवाद के व्याख्याकार की सन्तान
          तेज़ी से विषखोपड़े के प्यादे बन रहे हैं

          कविता लगातार अपनी मारक-दृष्टि से
          देख रही है विषखोपड़े के मस्तक को

          कविता बहुत ग़ुस्से में है।
                                          - प्रभात सरसिज

यह समय अत्याचारियों का समय है। एक अत्याचारी का मनुष्य-रूप कोई-सा हो सकता है - एक अत्याचारी अगर सरकार में बैठा कोई आदमी हो सकता है, कोई सूद पर पैसे लगाने वाला हो सकता है, कोई बैंक वाला हो सकता है, कोई दुकानदार हो सकता है, कोई आला अफ़सर हो सकता है, कोई हत्यारा हो सकता है, कोई बलात्कारी हो सकता है, कोई पहलवान हो सकता है, कोई अत्यधिक पूँजी वाला हो सकता है, कोई संपादक हो सकता है, कोई पत्रकार हो सकता है, तो कोई कवि भी हो सकता है। कहना यह है कि अत्याचारी हम सभी होते हैं। हम सभी धौंस-पट्टी देकर किसी पर भी अत्याचार करना चाहते हैं। बस शक्लें हमारी अलग-अलग होती हैं। आप भी तो अत्याचारी ठहरे। अभी कल ही की घटना लीजिए ना, कल आप एक एक्सप्रेस ट्रेन की आरक्षित बोगी में चढ़ जाते हैं। आपके पास टिकट तक नहीं होता। चूँकि आपको एक-दो स्टेशन के बाद उतर जाना है, सो जन्मसिद्ध अधिकार ठहरा आपका इस तरह सफ़र करना। आप इतना ही नहीं करते, आप किसी दूसरे यात्री की जगह पर पहुँच जाते हैं और वहीं बैठने की अपनी अत्याचार से भरी इच्छा जताते हैं। अब जिसने अपने लिए सीट आरक्षित करा रखी है, वह आपके इस अत्याचार का विरोध करता है, तो आपका विषखोपड़ा नाराज़ हो जाता है। इतना नाराज़ हो जाता है आपका विषखोपड़ा कि आप उस यात्री को कई चांटा जड़ देते हैं उस बेचारे के गाल को अपनी बपौती समझते। उसके साथ चल रही उसकी पत्नी आपके इस अत्याचार का विरोध करती है, तो आप अपनी मर्दानगी बचाते उस स्त्री से कहते हैं कि वह कुछ बोलेगी तो आप उसके बेचारे कवि को पीट डालेंगे। आप इस तरह का अत्याचात यहाँ-वहाँ इस वास्ते कर पाते हैं ढिठाई से क्योंकि आप अत्याचारियों को मालूम है की आप ऐसा करेंगे, तो आपके इस अत्याचार का विरोध कोई इस भय से नहीं करेगा, क्योंकि सब यात्री को मालूम होता है कि आप अगले किसी स्टेशन पर उतर जाएँगे, बाक़ी को तो काफ़ी आगे जाना रहता है। मैं भी आपके अत्याचार का विरोध कहाँ करता। मुझे साथ यात्रा कर रही पत्नी यह कहकर रोक लेती है कि विरोध मैं करूँगा, तो वह अत्याचारी उस व्यक्ति को छोड़कर मेरे पीछे पड़ जाएगा और फिर जिस पर अत्याचार किया जा रहा है, वह भी फिर उसके विरोध में मेरा साथ कहाँ देगा। सच है, बहुत सारे अत्याचार हम यही सोचकर सह लेते हैं और अत्याचारी अकेला हो या कई, वह हमारे इसी भय का लाभ उठाते हुए फिर किसी और के साथ अत्याचार करने की जुगत में लग जाता है। कभी-कभी हमारी मुलायम मनुष्यता कई नए ख़तरे को पैदा करती है। यह बात ना मेरी पत्नी समझ पाती है, ना अत्याचार सहने वाला और ना मेरे जैसा किसी अत्याचार को होते देखकर भी ख़ुद के भीतर दुबक जाने वाला बेहद डरा हुआ कवि। अब एक कवि क्या दुनिया को ऐसे बदल पाएगा, नहीं बदल पाएगा। जब एक आदमी किसी अत्याचारी के चंगुल में फंसकर उसका अत्याचार सहेगा, तो यक़ीनन उस अत्याचारी का मनोबल बढ़ता जाएगा। तो क्या कविता भी हमको यही सब करने की छूट देती है, क़तई नहीं। कविता हर अत्याचार को मसलकर रख देना चाहती है। लेकिन कविता ऐसा करे, तो कैसे करे? कविता के पास एक मनुष्य के जैसा शरीर तो होता नहीं कि वह भिड़ जाएगी अपने आसपास के अत्याचारियों से। कविता को हर हाल में एक अत्याचारी से भिड़ने के लिए एक मनुष्य-शरीर चाहिए ही चाहिए। कविता को जब प्रभात सरसिज जैसा शरीर मिल जाता है, तब फिर कविता सामने खड़े बाघ तक से नहीं डरती, फिर कोई अत्याचारी तो कमबख़्त मनुष्य ही होता है, उससे डरना कैसा :

          जबकि दुष्टों के बैर की संभावना
          हमें पराभूत करने के लिए लपक रही है
          ऐसे में उनके साथ मैत्री की गलियाँ
          खोज रहे हैं कई कवि-जन

          दुर्जनों के गिरोह के आश्रित होने के लिए
          छटपटाते ऐसे कवि-जन
          जनापवाद की चादर ओढ़कर
          हमारे मैत्री-शिविर में अबतक शामिल हैं

          परिवर्तन के कुछ शब्दों की लाठी थामते-लंगड़ाते
          इन कवियों को
          भाषा के बीहड़ में पकड़ा जा सकता है
          तोहमत के विरुद्ध वे
          तेज़ी से तर्क खोज रहे हैं

          पूर्ववर्ती जीवन-अवधि में
          हमारे विश्वसनीय मित्र थे ये कवि-जन
          उनकी कविताएँ आश्वस्ति देती थीं
          उनके अ-कंपनीय व्यक्तित्व में
          पराभूत नहीं होने की प्रतिज्ञा झलकती थी

          अपने उत्तरवर्ती सृजन में वे अब
          राजदण्ड के पक्ष में अपने विलोमित तर्क के साथ
          खड़े हो रहे हैं
          उनके क़दम-चाल हमें लज्जित कर रहे हैं
          उनके प्रमाद से क्रांत हो रही हैं लोक-आश्वस्ति
          उनकी कमर डोलने लगी हैं दुष्टों की
          उठी हुईं अँगुलियों के इशारे पर

          सांस्कृतिक-गौरव पर ठंढा कुठार
          चला रहे हैं हमारे मैत्री-शिविर में रहते हुए
          ऐसे कवि-जन

          प्रतीकों की पतली छड़ियों से
          नहीं टूटेंगे इनके गुमान
          जैसे नदी के छिछले तटों की छाया में
          नहीं पा सकते लोक-परितोष

          अब अभिधा की शक्ति वाले डंडे से ही
          तोड़ना होगा इनके गुमान।

यह कोई अचंभा, कोई रहस्य, कोई अजूबा नहीं है कि प्रभात सरसिज ख़ुद एक कवि होते हुए सर्वप्रथम कवियों का गुमान तोड़ना चाहते हैं। वे कौन और कैसे कवि हैं, जिनका गुमान प्रभात सरसिज तोड़ना चाहते हैं, वह भी डंडे से मारते-पीटते, मुकियाते-धकियाते, लतियाते-गरियाते? ऐसे कवियों की पहचान ख्यातनाम कवि, उपन्यासकार और बुकर प्राइज़ विजेता बेन ओकरी बताते हैं, 'अत्याचारी भी कई बार कवि-रूप में जाने जाते हैं, कहना चाहिए कि बुरे कवि के रूप में।' सही साबित होता है बेन ओकरी के इस कथन के बाद प्रभात सरसिज का यह विचार कि कविता के घर में घुस आए सर्वप्रथम उन कवियों को भगाओ मारते-पीटते, मुकियाते-लतियाते, लतियाते-गरियाते, जो कवि सत्ता का भक्त होने के लिए कविता के घर को अपनी भक्त-इच्छा से बदबूदार कर रहे हैं, कविता का असली उत्सव भंग कर रहे हैं, कविता को अपनी रखैल मान रहे हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर दिया जाए कि सत्ता-भक्त कवि काव्य की हर विधा में सेंधमारी कर रहे हैं। प्रभात सरसिज ऐसे ही सेंध मारते सत्ता-भक्त अत्याचारी कवियों की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करते हैं। ये कवि कविता के घर को सामने से नहीं तोड़ते, किसी चोर की तरह घर की पिछाड़ी से हमलावर होते हैं। लड़ाई के मैदान में ये भक्त कवि कभी दिखाई नहीं देते। प्रभात सरसिज जैसे योद्धा कवि जब सत्ता की दीवार चूर-चूर कर रहे होते हैं, उस समय ये भक्त कवि सत्ता की मलाई चाट रहे होते हैं। बेन ओकरी के ही शब्दों को लें, तो बेन ओकरी कहना चाहते हैं, 'सच्चे कवि सिर्फ़ यही चाहते हैं कि आप इस पूरी सृष्टि के साथ किए गए उस अनुबंध का सम्मान करें, जो आपने इसकी वायु के अदृश्य जादू से अपनी पहली साँस खींचते समय किया था।' ऐसा ही आशय कवियों से प्रभात सरसिज करते हैं और ऐसा ही इंटेंशन भी रखते हैं कि कवि जब जिस रास्ते को लाँघता है, वह जनता के घर का रास्ता होता है, जिस जनता के घर सत्ता की दी हुई बस परेशानियाँ-ही-परेशानियाँ हैं :

          लोक-प्रस्तावों की तरफ़दारी में
          उठती है जो अँगुली
          दूसरी अँगुलियाँ बराबरी नहीं कर पातीं

          जिसके नाम से उठ जाती है अँगुली
          उसके अवगुणों को ललकार मिलने के साथ
          शेष सद्गुणों पर भी
          काली घटाएँ छा जाती हैं

          अभी इक्कीसवीं सदी के
          दूसरे दशक का उत्तरार्द्ध है
          असँख्य अँगुलियाँ उठ रही हैं
          अपने मान में उन्नत हैं ये अँगुलियाँ
          ये अलंघ्य हैं आपके लिए
          सदियाँ झनझनाती हैं इन अँगुलियों से

          हल में फाल प्रवेश कराने वाली अँगुलियों की नसों में
          जब तनाव आता है तब
          धरती-बंध्या रहने से इनकार कर जाती हैं

          क़लम पकड़ने वाली अँगुलियों को
          संदेश देती हैं हलों में फाल घुसाने वाली अँगुलियाँ कि
          क़लम के चलने से ही अबंध्या धरती को
          वसुन्धरा होने की संज्ञा मिलती है

          अब यह वसुन्धरा नहीं है आपका राजत्व
          वसुन्धरा को नहीं है स्वीकार आपके नियम-परिनियम
          नए लोक-प्रस्तावों की तरफ़दारी में
          उठ रही हैं चारों ओर असँख्य अँगुलियाँ।

प्रभात सरसिज यह भी कहते हैं, कवियों को समझाने के ख़्याल से :

          अब प्रतिरोध ही होगा हमारा आभूषण सिद्ध

          तमाम याचनाओं को
          अ-प्रयोजनीय बनाने का मलिन साहस
          अंततः बना देगा आपको महाभियोगी

          आपकी शैली में ही
          विग्रह ठानने की इच्छा है हमें अस्वीकार

          लोक-कल्याण की कामना को धराशायी कर
          आपके द्वारा बनाए रास्ते पर भी
          चलना हमें है अस्वीकार

          इस भुवन-खण्ड पर
          सर्प-फन की छाया में बने
          नियम-विधान हैं हमें अस्वीकार

          आपका व्याघ्र-नाद और
          डरावनी घोषणाएं हमें हैं अस्वीकार

          आपके विरुद्ध होगा अवज्ञाओं का शर-संधान
          अस्वीकृतियों से चतुर्दिक घिर रहे हैं आप
          अस्वीकृतियों के शर-समूह
          व्याकुल हैं प्रक्षेपण के लिए
          जल्द त्यागें माया-मृग वाला यह कंचन-आवरण
          अब प्रतिरोध ही सिद्ध होगा हमारा आभूषण।



प्रभात सरसिज भारतीय हिंदी कविता के उन कवियों में हैं, जिनकी कविताएँ मनुष्य-जीवन के संत्रास को एकदम अलहदा तरीक़े से उद्घाटित करती हैं। इन कविताओं को गुने-बुने-रचे जाते वक़्त कवि के भीतर-बाहर किसी तरह का असमंजस नहीं रहता, ना किसी तरह की झिझक रहती है कि ये कविताएँ कौन-सा पाठक, कौन-सा श्रोता या कौन-सा आलोचक पसंद करेगा। एक पाठक, एक श्रोता, एक आलोचक के भीतर-भीतर यह असमंजस चलता रहता है कि अब प्रतिरोध के कवि धीरे-धीरे ख़त्म होने को हैं, तो प्रभात सरसिज जैसे बेधक, बेधड़क, बेहिचक कहने वाले कवि को वे कहाँ-किस ख़ाने में रखें? जब यह कवि प्रतिरोध को अपना आभूषण बनाए भारतीय हिंदी कविता में बिंदास बुल-टहल-घूम रहा है, तो उन नपुंसक कवियों को, जिन्हें वे महान घोषित करते आए हैं, उनका नतीजा फिर क्या होगा? नतीजतन आज के श्रोता, आज के पाठक और आज के आलोचक प्रभात सरसिज सरीखे कवियों को हिंदी के अभिशप्त कवियों में रखकर कन्नी काट जाते हैं कि अब प्रतिरोध का समय बचा कहाँ है अपने प्यारे भारत में, अब तो कवियों को एसनो-पाउडर चेहरे पर मलकर बस अच्छे दिनों में टहलना और सैर करना भर चाहिए… अब तो हर तरफ़ हरी दूब है, हरे दरख़्त हैं, उपजाऊ ज़मीनें हैं। ई प्रभात सरसिज त पगलेट कवि टाइप बा हो, जो कहता है कि अब कवि के डंडे से इस क्रूर शासन और शासक को बदलना होगा। एक पगलेट कवि कबीर भी हुआ करता था, लुकाठी हाथ में लेकर चलता था। अब बताओ भला, इतने अच्छे शासन, इतनी अच्छी व्यवस्था, इतने अच्छे मंत्री-संतरी वाले समय में जब हम जी रहे हैं, इतने अच्छे नए भारत में जी रहे हैं, जिसमें ना चोरी है, ना डाकाज़नी है, ना बलात्कार है, ना हत्या है, ना पुलिसिया ज़ुल्म है, ना घुसख़ोरी है, ना जमाख़ोरी है, ना नाइंसाफ़ी है, ना मार-काट है, ना सड़कें ख़राब हैं, ना गलियाँ ख़राब हैं, ना बाज़ार में सामानों की क़ीमतें ज़्यादा हैं तब फिर इस हालत में इस पगलेट कवि के कहने भर से मन की बात करने वाले अपने मनमौजी महामात्य के विरुद्ध हम लाठी-डंडा लेकर सड़क पर उतर आएँ। क्या फ़र्क़ पड़ता है, जब यह सरकार हमें महँगाई भत्ता एक प्रतिशत देती है, पहले की सरकारें छह-आठ-दस प्रतिशत दिया करती थीं! भई, सरकार बहादुर ने कुछ दिया ही ना, लिया तो नहीं ना! क्या फ़र्क़ पड़ता है, जब किसान आत्महत्या करता है या किसी परिवार को बिना आधार कार्ड के सरकारी गल्ले की दुकान से कुछ नहीं मिलता और भूख से तड़पते हुए कोई बच्चा मर जाता है, क्या फ़र्क़ पड़ता है, जब आदमी के हाथों आदमी को जान से मारने की घटनाएँ बढ़ गई हैं!… अरे बुड़बक कवि प्रभात सरसिज, यह सब तो अपने अमात्य-महामात्य राष्ट्रहित में करवाते हैं। ऐसा असाधारण शासन अपने मुल्क में ना कभी आया है और ना आएगा। इसलिए कवि प्रभात सरसिज का विरोध-प्रतिरोध किसी काम का नहीं। यह अग्रज कवि ऐसे अमात्य-महामात्य की मुख़ालफ़त करेगा, तो अपने यहाँ के सुधी पाठक, सुधी श्रोता, सुधी आलोचक इनकी नोटिस काहे लेंगे। आज सुबुद्धियुक्त वही है, जो दूसरे उन कवियों से सीखे, जो कवि पिछली हर सरकार की मुख़ालफ़त किया करते थे, अब की राष्ट्रहित वाली सरकार का नहीं करते। इस वास्ते कि अब की सरकार कवियों के भी मन की सरकार है। उनकी आस्था की भी सरकार है।

सच जो है बस यही है कि आज की हिंदी आलोचना प्रभात सरसिज को मारना चाहे तब भी मार नहीं सकती। जिस तरह भाई लोग मुक्तिबोध को मारना चाहते हैं लेकिन मार नहीं पाते। आप चाहकर भी नहीं मार सकते हो चाहे कबीर हों, चाहे मुक्तिबोध हों या चाहे प्रभात सरसिज हों। मारना तो आपको अनंत: ऐसी व्यवस्था को ही पड़ेगा जिसमें मनुष्य-समाज का कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अब आप ही बताओ ज़रा कि कौन-सी सांस्कृतिक बहुलता आपके अपने पड़ोसी के साथ बची हुई है? नहीं ना, फिर इतराते काहे फिर रहे हैं कि आप ही असाधारण मनुष्य हैं, जो बचे हुए हैं… प्रभात सरसिज जैसे लोग फ़ालतू लोग हैं। यही सोच आपकी उदासीनता को सिद्ध करता है और प्रभात सरसिज को जनता का सच्चा कवि सिद्ध करता है। जो औज़ार प्रभात सरसिज भारतीय हिंदी कविता को सौंप रहे हैं, आप सहेजकर रखना चाहें, ना चाहें, मैं बग़ैर किसी संदेह में पड़े इस शब्द-औज़ार को ज़रूर अपने जीवन की लड़ाई के लिए बचाकर रखना चाहूँगा :
          यह क़लम ही कवि का खड्ग है
          यह उनकी तीसरी भुजा है

          पावक की तरह पावन है क़लम
          तुम्हारे अ-गाम्भीर्य चोंचलेवाज़ी को यही न्यस्त  करेगा
          यह खड्ग सदृश क़लम
          फ़सल भरे खेतों और
          बनस्पति से लदे वनों का नहीं करता नाश

          जबतक बीज ग्रहण करती रहेगी धरती
          तबतक हल के फाल से सम्पर्क रहेगा
          क़लम के वंशज हैं लोहे के फाल

          यह क़लम नहीं है केवल
          कवियों का विलास
          इसमें कृषकों-श्रमिकों का उल्लास बोलता है

          नहीं मानती क़लम विष्ठा-प्रिय सुअर को
          वाराह जैसा कोई अवतार
          नहीं बन सकते तुम
          दीर्घावधि के लिये अंगुलीमाल।