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'कोहबर की शर्त' से 'नदिया के पार' तक...

मनोरंजन [अनूप नारायण] :

मुम्बइया प्रेम कहानी से अलग यह एक ऐसी प्रेमकथा थी जिसकी नायिका के अंदर "जवानी" नहीं, बचपना भरा हुआ था। जिसका नायक नायिका की देह देख कर प्यार में नहीं पड़ता, उसे जाने क्यों नायिका के साथ रहने में खुशी मिलने लगती है। दोनों का प्रेम ऐसा है जैसे दो ग्रामीण बच्चे खेल रहे हों। वे कब झगड़ते हैं, कब रूठते हैं और कब एक दूसरे की नाक खींच कर हँसने लगते हैं यह उन्हें भी ज्ञात नहीं होता।
टेलिविजन पर जब प्रथम बार "नदिया के पार" देखी थी। तब से न जाने कितनी बार देखी, कुछ स्मरण नहीं। हृदय में गूंजा और चंदन कुछ ऐसे बसे हैं जैसे प्रेम करने का अर्थ ही "गुंजा हो जाना" है। परदे पर जब-जब गुंजा ने चंदन से कहा, "तुमसे खेले बिना हमारा फगुआ कैसे पूरा होता..!" तब-तब लगा है जैसे उनके साथ साथ हम भी प्रेम को 'जी' रहे हों। बलिहार से चौबे छपरा जाते चंदन-गुंजा ने जब-जब दीपासती को प्रणाम किया, तो उनसे पहले हमने प्रार्थना की," हे दीपासती, चंदन ही गुंजा की मांग भरे.."रूपा की गोद में मुह छिपा कर सिसकती गुंजा को देख कर हर बार रूपा से पहले हमने कहा होगा-"यह क्या रे! रोती क्यों है तू? जो चाहती है, वही होगा। चन्दन ही तेरी मांग भरेगा, रो मत।"हमारी पीढ़ी के असंख्य युवकों ने चन्दन और गुंजा से ही प्रेम करना सीखा है।हमारी पीढ़ी का स्यात ही कोई गंवई युवक या युवती ऐसी हो जो आज भी "कवन दिशा में ले के चला रे बटोहिया..." सुन के मुस्कुरा न उठे।
अस्सी के दशक में जन्मे हजारों लड़कों का नाम चन्दन, और हजारों लड़कियों का नाम गुंजा इसी फिल्म के कारण रखा गया।