Gidhaur.com (नजरिया) : चारा घोटाले में राजद सुप्रीमो लालू यादव को दोषी करार दिए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी, बिहार प्रदेश के आईटी एवं सोशल मीडिया विभाग के प्रदेश संयोजक मनीष कुमार पांडेय ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि लालू जी को न्यायालय ने चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिया जिसकी प्रतिक्रिया में स्वयं लालू जी ने कई प्रकार की बातें कही, जो उनके बचे हुए राजनीतिक जीवन के लिए आवश्यक भी थी। विशेष कर उनके उत्तराधिकारियों के लिए।
इस मामले पर सोशल मीडिया में भी बुद्धिजीवियों ने अपनी टिप्पणियाँ साझा की हैं। मुझे याद आता है वह 90 का दशक जब लालू जी पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। पटना स्थित चिरैयाटांड चौराहा कितना संकीर्ण था लालू जी ने किस प्रकार हिम्मत दिखाते हुए उसे तुड़वाया और चौड़ा करवाया। बी पी सिंह के मंडल आंदोलन के पूर्व लालू जी की छवि कड़े और बेबाक प्रशासक की बन रही थी। लेकिन मंडल और कमंडल आंदोलन ने लालू जी की कार्यशैली ही बदल डाली।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की बिहार जैसे राज्य में लालू जी जाति के आधार पर दबे, कुचले, शोषित वर्गो की आवाज बन सामाजिक परिवर्तन एवं राजनीतिक जागरूकता लाने में सफल हुए। इसके लिए लालू जी को इतिहास कभी भूल नहीं सकता। लेकिन जाति आधार पर केंद्रित राजनीति एवं गलत संगति, जिसमें लालू जी के अपने लोग ही शामिल थे, उन्हें ज्यादा नुकसान पहुंचाया।
बिहार के विकास की योजनाएं सिर्फ जातीय परिधि में सिमट कर रह गई। परिणाम यह हुआ कि सत्ता बेलगाम हो गई। पदाधिकारी नंगा नाच करने लग गए। चारा घोटाला का सबसे हास्यास्पद पक्ष यह है कि जानवरों को लाने ले जाने के लिए जिन गाड़ियों के नंबर फाइलों में दर्ज थे वह स्कूटर और मोटरसाइकिल के निकले। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी को भी किसी प्रकार का डर नहीं था।
बेलगाम सत्ता, निरंकुश मंत्री और पदाधिकारियों की घोर अराजकता ने लालू जी के ऐतिहासिक सामाजिक जागरुकता की धार को कुंद कर दिया और समय के साथ-साथ लालू जी भी परिवारवाद, पूंजीवाद और जातिवाद में सिमटते चले गए, जो अत्यंत दुखद था। यह एक कड़वी सच्चाई है, इसे स्वीकार तो करना ही होगा।
श्री पांडेय के अनुसार झूठ की बुनियाद पर बने मकान ज्यादा दिन नहीं टिकते। समय बदला है, समय के साथ परिस्थितियां भी बदली है, और मुद्दे भी। जिस समाज को 90 के दशक में जुबान की जरूरत थी, आज उसे रोटी और रोजगार की जरूरत है। कल हो सकता है उसकी जरूरतें कुछ और हो जाए। लेकिन इतना अवश्य है कि लालू जी जैसे नेता का इस प्रकार राजनीतिक ढलान दुखद तो है ही। इसके अलावा इतिहासकारों को लालू जी की जीवनी लिखने में प्रारंभ में जितना मजा आएगा अंत में उतना ही दुख भी होगा। यह सत्य है। लेकिन इससे आज की युवा राजनीतिक पीढ़ी को सबक अवश्य लेनी चाहिए।
न्यूज़ डेस्क
24/12/2017, रविवार
इस मामले पर सोशल मीडिया में भी बुद्धिजीवियों ने अपनी टिप्पणियाँ साझा की हैं। मुझे याद आता है वह 90 का दशक जब लालू जी पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। पटना स्थित चिरैयाटांड चौराहा कितना संकीर्ण था लालू जी ने किस प्रकार हिम्मत दिखाते हुए उसे तुड़वाया और चौड़ा करवाया। बी पी सिंह के मंडल आंदोलन के पूर्व लालू जी की छवि कड़े और बेबाक प्रशासक की बन रही थी। लेकिन मंडल और कमंडल आंदोलन ने लालू जी की कार्यशैली ही बदल डाली।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की बिहार जैसे राज्य में लालू जी जाति के आधार पर दबे, कुचले, शोषित वर्गो की आवाज बन सामाजिक परिवर्तन एवं राजनीतिक जागरूकता लाने में सफल हुए। इसके लिए लालू जी को इतिहास कभी भूल नहीं सकता। लेकिन जाति आधार पर केंद्रित राजनीति एवं गलत संगति, जिसमें लालू जी के अपने लोग ही शामिल थे, उन्हें ज्यादा नुकसान पहुंचाया।
बिहार के विकास की योजनाएं सिर्फ जातीय परिधि में सिमट कर रह गई। परिणाम यह हुआ कि सत्ता बेलगाम हो गई। पदाधिकारी नंगा नाच करने लग गए। चारा घोटाला का सबसे हास्यास्पद पक्ष यह है कि जानवरों को लाने ले जाने के लिए जिन गाड़ियों के नंबर फाइलों में दर्ज थे वह स्कूटर और मोटरसाइकिल के निकले। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी को भी किसी प्रकार का डर नहीं था।
बेलगाम सत्ता, निरंकुश मंत्री और पदाधिकारियों की घोर अराजकता ने लालू जी के ऐतिहासिक सामाजिक जागरुकता की धार को कुंद कर दिया और समय के साथ-साथ लालू जी भी परिवारवाद, पूंजीवाद और जातिवाद में सिमटते चले गए, जो अत्यंत दुखद था। यह एक कड़वी सच्चाई है, इसे स्वीकार तो करना ही होगा।
श्री पांडेय के अनुसार झूठ की बुनियाद पर बने मकान ज्यादा दिन नहीं टिकते। समय बदला है, समय के साथ परिस्थितियां भी बदली है, और मुद्दे भी। जिस समाज को 90 के दशक में जुबान की जरूरत थी, आज उसे रोटी और रोजगार की जरूरत है। कल हो सकता है उसकी जरूरतें कुछ और हो जाए। लेकिन इतना अवश्य है कि लालू जी जैसे नेता का इस प्रकार राजनीतिक ढलान दुखद तो है ही। इसके अलावा इतिहासकारों को लालू जी की जीवनी लिखने में प्रारंभ में जितना मजा आएगा अंत में उतना ही दुख भी होगा। यह सत्य है। लेकिन इससे आज की युवा राजनीतिक पीढ़ी को सबक अवश्य लेनी चाहिए।
न्यूज़ डेस्क
24/12/2017, रविवार