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बुधवार, 20 सितंबर 2017

'शोहदों' का होकर रह गया शरीफों का शहर

Gidhaur.com (बिहारशरीफ) : यह शहर कब शोहदों का शहर बन गया, पता ही नहीं चला। उबाल मारती शहर की आकांक्षाएँ इन ठप्प दीवारों से टकरा रही हैं। पूछ रही है कि मेरा शहर पीछे क्यों छूट गया। ट्रिन-ट्रिन की आवाज़, साइकिलों पर सवार शहर की सैकड़ों बेटियां पढ़ने आती है। काफी डर-डर कर पैडल मारती आगे बढ़ती है कि कहीं किसी से टकरा न जाए। मगर उसे क्या पता कि यह शहर वो नहीं है जहां कह सके कि 'इत्मीनान रखें, यह शहर सूफी संतों का है'। अब तो हर मोड़ पर घूरती नज़रें डराने लगी है। कभी गोली तो कभी छेड़खानी का विरोध करने पर मारपीट। शहर अब अकबकाने लगा है। क्या हुआ है इस शहर को? लड़की छोटे कपड़े पहने या बड़े, पुरूषों के सामने से गुजरते वक्त उसे किसी न किसी प्रकार की फब्ती को झेलना ही पड़ता है। पता नहीं लड़कियों के कपड़े ज़्यादा छोटे हैं या हमारे समाज की सोच।

यह एक ऐसा शहर है जो गांव होने के अतीत के साथ ज़िंदा है। यहां लड़के को होनहार बनना ही सीखाया जाता है। बाकी संस्कार नहीं दिये जाते। ज़्यादातर लड़के घर से ही ऐसी निगाहों का संस्कार पा जाते हैं, जिनके सहारे वो हर दिन आस-पास से गुज़र रही लड़कियों का पीछा करते रहते हैं। निगाहों के करम से देखें तो शहर की लड़कियां जानती होंगी कि वो हर दिन कितनी निगाहों से खुद को बचाती होंगी। अच्छा लड़का भी लोफर होने के इन नैसर्गिक और सामाजिक तत्वों के साथ बड़ा होता है। संक्षेप में जिन्हें लोफर कहा जा सकता है। जब बहस करो तो जवाब मिलता है कि कपड़ें देखे हैं आपने? अक्सर लड़कियों के आस-पास उठती गिरती निगाहों को देखता हूँ। वो सब शरीफ इन्हें दबोच लेना चाहते है। लड़कियां हर रोज़ ऐसे बेहूदों की नज़रों के जंगल से गुज़रती होगीं। सोच कर डर गए? क्या हालत होती होगी उन लड़कियों की हर दिन?

(अनूप नारायण)
Gidhaur.com      |     20/09/2017, बुधवार

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