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गुरुवार, 18 मई 2017

बेटियों के प्रति कब बदलेगा सामाजिक नजरिया !

इतिहास गवाह है कि हमारे समाज में हर दिन उजालों का मेला नहीं होता। प्रत्येक मनुष्य को इस संसार की यथार्थता का ज्ञान देर सवेर हो ही जाता है। विवाह के बाद घर में गूंजती किलकारी की ख़ुशी का मायना उस हर माँ की आँखों में कोई भी सहज रूप से देख सकता है, जिसने उसे अपने ही घर परिवार और नाते रिश्तेदारों से मिले तानों के कड़वे घूँट पीते हुए दिन काटते देखा हो। उनका दुःख समझा हो। आज के पढ़े-लिखे सभ्य समझे जाने वाले समाज में मां-बाप की लाडली समझी जाने वाली बेटी, जब  बहू बनती है, तो अगले एक-दो साल में मां न बनने पर उसे अपने घर-परिवार और परिचितों में तमाम तरह के ताने सुनने पड़ते हैं। बेटी-बहू के प्रति ऐसा नजरिया रखने वाले लोगों के सुख-दुख में शरीक होकर उनके नजरिए को बदलने का भरसक प्रयास होना चाहिए। इस में कभी कभी हमारे समाज को अप्रिय संवाद के दौर से भी गुजरना पड़ता है। इसके  अतिरिक्त जब कभी इसका सकारात्मक प्रभाव समाज की आंखों से देखा जाए तो  इस संदर्भ में बड़ी उपलब्धि दिखती है।

हमारे समाज मे भ्रूण हत्या का कारवाँ थमेगा या बेटी बचाओ , बेटी पढाओ सिर्फ नारा ही रहेगा इसपर गम्भीरतापूर्वक सोचना अत्यावश्यक है। एक ओर अपने जीवन को एकांत और बिना रुकावट के जीने के लिए आज की नई पीढ़ी अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाते हैं वहीं यह भूल जाते हैं की माँ जैसी शख्सियत नौ महीने हमें अपने गर्भ में रखकर हमारे रंगहीन जीवन को रंगीन बनाती है। 

(अभिषेक कुमार झा)
~गिद्धौर 
18/05/2017, गुरुवार 

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