"लोहा, टीना, प्लास्टिक, रद्दी कागज, दे दो"
आपके गली मे गूंजने वाली ये आवाज पर गौर कीजिएगा।
रद्दी, कूड़ा-कचड़ा चुनते कभी इन लोगों को देखिए, आँखे नम हो जाएंगी।
गिद्धौर स्थित त्रिपुर सुंदरी मंदिर व तालाब के पास झुग्गी-झोपड़ी मे रह रहे छोटे-छोटे बच्चे जब कचरो मे अपना जीवन तलाशते हैं तो सरकार के शैक्षिक रवैये का पर्दाफाश हो जाता है। हम जानते हैं कि पूरे विश्व में कचड़े को इकठ्ठा करना, फेंकना और उसे नष्ट करना एक सामान्य दैनिक कार्य है। आज कचड़े को नष्ट करना एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। कचड़े के संग्रह व निबटारे के गलत तौर-तरीके के चलते ग्लोबल वार्मिंग में भी बढ़ोतरी हो रही है। विकसित और औद्योगिक देशों में कचड़े को परिष्कृत तरीके से नष्ट किया जाता है और दोबारा उपयोग के लायक बनाया जाता है।
आपके गली मे गूंजने वाली ये आवाज पर गौर कीजिएगा।
रद्दी, कूड़ा-कचड़ा चुनते कभी इन लोगों को देखिए, आँखे नम हो जाएंगी।
गिद्धौर स्थित त्रिपुर सुंदरी मंदिर व तालाब के पास झुग्गी-झोपड़ी मे रह रहे छोटे-छोटे बच्चे जब कचरो मे अपना जीवन तलाशते हैं तो सरकार के शैक्षिक रवैये का पर्दाफाश हो जाता है। हम जानते हैं कि पूरे विश्व में कचड़े को इकठ्ठा करना, फेंकना और उसे नष्ट करना एक सामान्य दैनिक कार्य है। आज कचड़े को नष्ट करना एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। कचड़े के संग्रह व निबटारे के गलत तौर-तरीके के चलते ग्लोबल वार्मिंग में भी बढ़ोतरी हो रही है। विकसित और औद्योगिक देशों में कचड़े को परिष्कृत तरीके से नष्ट किया जाता है और दोबारा उपयोग के लायक बनाया जाता है।
कचड़े के इस काले पहाड़ पर बच्चों की सेना बड़ी खुशी से खेलती हुई नजर आती है। ये बच्चे कोई और नहीं बल्कि उन्हीं कचड़ा बीनने वालों की संतानें हैं। हालांकि, यह नजारा आपको जमुई के किसी भी प्रखंड में आसानी से दिख सकती है, गिद्धौर कोई बड़ी बात नहीं है। प्लास्टिक, कागज के गत्तों, टिन की चादरों, लकड़ियों, पॉलीथीन शीट, टूटे ईट के टुकड़ों तथा मिट्टी के लेप से बनी झुग्गियों-झोपड़ियों में रहने वाले यह लोग बहुत मुश्किल से जाड़ा-गर्मी और वर्षा से अपनी रक्षा करते हैं। कूड़ा-कचड़ा चुनने मे घर के बड़े सदस्य तो रहते हैं पर असली मेहनत तो इनके बच्चे करते हैं, पर असली कमाई महँगाई खा जाते हैं।

इतनी मेहनत करके भी उन्हें उनके हक का हिस्सा नहीं मिलता है। गिद्धौर समेत विभिन्न जगहों के फेंके हुए कचड़े में से पुन: उपयोग में आने लायक वस्तुओं को बीनने के बाद भी कचड़ा बीनने वाले बच्चे धन्यवाद जैसे शब्द के भी मोहताज हैं। आज तक सरकार ने न तो इन बच्चों की सेवाओं के महत्व को स्वीकार किया है और न ही उन्हें किसी तरह की सुविधा ही उपलब्ध कराई गई है। एक ओर हमारे संविधान मे सभी जाति धर्म को समान दर्जा दिया गया हैं वहीं दूसरी ओर हमारे घर के आसपास, और पर्यावरण का कचड़ा साफ करने वाले इन बच्चों से भेदभाव क्यों?
(अभिषेक कुमार झा)
~गिद्धौर | 22/05/2017, गिद्धौर