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संपादकीय : क्या फ़क़ीर के भभूत से बुझेगी दिल्ली की आग और मिलेगी आजादी!

दिल्ली के घमासान पर वरिष्ठ कवि व साहित्यकार श्री ज्योतिन्द्र मिश्र की तल्ख संपादकीय gidhaur.com के लिए!
एक अनलिखे इतिहास को यक ब यक उगलती हुई दिल्ली एक बार फिर नव जयचंदों के महाजाल में बुरी तरह फंस गई है. नियति की गेंद फिलवक्त उन्हीं सत्ता के भूखे भेड़ियों के हाथों में चली गई है जो सत्ता में रहने के लिए कुछ भी कर सकते हैं. दिल्ली को सीरिया बनाने या गजबा ए हिन्द को रास्ता देने में भला उन्हें क्यूँ गुरेज होगा. कश्मीर में जो लोग इस्लामिक स्टेट नहीं बना सके वे आखिर अपनी पराजय को कहाँ रूपांतरित करेंगे. नागरिकता संशोधन एक्ट तो एक बहाना है.
लोकसभा में बोलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (तस्वीर साभार : लोकसभा टीवी)
जिस देश का प्रधानमंत्री दोनों सदनों से पास होकर बाजाप्ता राष्ट्रपति का अनुमोदन होकर निकले एक्ट के बारे में जनता को बार-बार आश्वस्त कर रहा हो कि यह कानून देश के भारतीय नागरिकों की नागरिकता लेने वाला नहीं है फिर भी हमारे भाई जान को दिल्ली के फ़क़ीर पर यकीं नहीं हो रहा. इस एक्ट के प्रारूप को बिना पढ़े उनकी विस्फोटक आँखें विद्रूप अट्टहास करती हुई इस कद्र जुनूनी हो गईं हैं कि वे दिल्ली को ही जला देना चाहते हैं. वे न्यायपालिका को भी विधायिका की रखैल समझने लगे हैं.

यह आत्मघाती उन्माद किस मुकाम पर जाकर विराम लेगा, कहना मुश्किल है. हताशा की हद पार करती हुई वहशी भीड़ क्यों दिल्ली को आग धुआं के हवाले करना चाहते हैं यह रहस्य ना तो सरकार खोलना चाहती है ना ही ये जुनूनी हिन्दुस्तानी बताना चाहते हैं. आईस वर्ग का केवल मस्तूल दिखाई दे रहा है. उसका अंदरूनी विस्तार अदृश्य है.
सत्तर सालों से जिस भाईजान को बहुसंख्यक के टैक्स पर पाला पोसा गया. जिन्हें एक ही घर में कुछ विशेष हिफाज़त से रखा गया वे एक टफ फ़क़ीर के फेर में पड़ गए हैं. यह न तो माई बना सकता है ना ही भीम मीम बना सकता है. तुष्टिकरण इसके एजेंडे में है ही नहीं. शायद सेकुलरिज्म का दमघोंटू शब्द भी इसकी डिक्शनरी में नहीं है. यही कारण है कि फ़क़ीर का भभूत जो कोई अंगीभूत करता है उसकी रूह में समाया हुआ भूत आजादी मांगने लगता है. कोई जिन्ना वाली आजादी मांगता है.

खुदरा आजादी मांगने वाले ये याचक किससे और क्यूँ मांग रहे ये साफ़ नहीं बताते. आजादी मांगने की यह कवायद बेशक 2019 के संसदीय चुनाव में प्रचंड बहुमत से बनी सरकार के बाद बढ़ी है. यह उनकी कवायद है जो नहीं चाहते थे कि दुबारा भगवा सरकार वापस आये. पडोसी देश ने तो तब भी कोशिश की थी. वो आज भी कर रहा है.
जवाहर लाल नेहरु एवं इंदिरा गाँधी (तस्वीर साभार : इंटरनेट)
भारतीय राजनीती के कोरिडोर में एक ऐसा वक़्त भी आया था जब यह सवाल उठा कि नेहरु के बाद कौन

यह सवाल नेहरु से भी पूछा गया. कुछ दरबारियों ने इंदिरा जी के नाम का प्रस्ताव नेहरु के सामने रख दिया. तब नेहरु ने कहा कि इंदिरा जिद्दी स्वभाव की है. जनतंत्र में जिद का कोई स्थान नहीं होता. जिद्दी प्रधानमंत्री का होना हितकर नहीं होगा. लेकिन समय और सियासत की चाल ने नेहरु की सोच को गलत साबित कर दिया. विशाल बहुमत से वो सत्ता में आई और उसी जिद के कारण खुद को इतिहास में दर्ज कर लिया.

यह उस जिद्दी प्रधानमंत्री की कूटनीति ही थी कि उसने पड़ोसी देश के टुकड़े कर दिए लेकिन अपने देश का टुकड़ा नहीं किया. उसी इंदिरा के रक्तबीज आज टुकड़े-टुकड़े करने वालों के कोरस गान में सुर मिला रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं गृह मंत्री अमित शाह (तस्वीर साभार : इंटरनेट)
2019 के चुनाव में भाजपा की शानदार वापसी हुई. जो वापसी नहीं चाहते थे वे हाशिये पर चले गए. आज जब बहुमत की सरकार कोई कानून बनाती है तो उस कानून को संसद के दोनों सदनों से पास कराती है. ऐसे कानून का सड़कों पर विरोध करना प्रकारंतर से जनता द्वारा दिए गए बहुमत का अपमान करना ही तो है.

जनतंत्र में अल्पमत में रहने वाले को भी विरोध का हक़ तो है लेकिन देश के नागरिकों के घर फूंकने का, उनकी हत्या करने का, दहशत फैलाने का हक़ नहीं है. ऐसे प्रयोग वे ही करते हैं जिन्हें सत्तर सालों में देश की सरकारों ने उन्हें किंगमेकर मानते हुए मलामत करते रहे हैं.
दिल्ली में हुए घमासान के बाद तैनात सुरक्षाबल (तस्वीर साभार : इंटरनेट)
इस टफ फ़क़ीर से यह उम्मीद करना बेमानी है कि उन्हें फिर से गोद ले लिया जायेगा. जो फ़क़ीर रोज कहता चल रहा हो कि यह तो अभी ट्रेलर है असली सीन तो अब आने वाला है.
श्री ज्योतेंद्र मिश्र, कवि-साहित्यकार

~ यह लेखक के निजी विचार हैं. इसमें किसी प्रकार का संशोधन या फेरबदल नहीं किया गया है