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मंगलवार, 21 जनवरी 2020

पुस्तक समीक्षा : खामोश बहती धाराएं, कवि : बिभाश कुमार (काव्य संग्रह)


कवि : बिभाश कुमार
मोबाइल : 09931803318

मौन बहते रहने की व्यथा
■ शहंशाह आलम

बिभाश कुमार युवा कवि हैं। युवा हैं, सो इनके ख़्वाब नौजवानों वाले हैं। इनके संवाद नौजवानों वाले हैं। इनके पास ताक़त नौजवानों वाली है। यानी इन्हीं की तरह इनकी कविता भी जवान है। कविता जवान है, सो इनकी कविता का साहस जवान है। इनकी कविता का विद्रोह जवान है। यहाँ पर ज़रा देर ठहरकर यह कहा जा सकता है कि बिभाश कुमार का विद्रोह वैविध्यपूर्ण लिए है। ऐसा होना लाज़िमी है, आदमी की व्यथाएँ भी तो वैविध्यपूर्ण होती हैं। बिभाश कुमार तभी न कहते हैं, ‘विक्षिप्त मनोदशा रोगी भी / लिख रहा है द्विजत्व का इतिहास / जहाँ / जातीय तनाव की आशंका को / विद्रोह की संभावनाओं से ही / करके अक्सर दरकिनार / करता रहा है भ्रमित / दलित स्त्री संबंध जटिलता का ( पृष्ठ : 19-20)।’

सच यह है कि हम आधुनिक होने की बतकही दिन-रात करते ज़रूर हैं, लेकिन मध्ययुगीन सोच से हम ग्रसित रहते आए हैं। बिभाश कुमार का कविता-संग्रह ‘ख़ामोश बहती धाराएँ’ की कविताएँ हमारी मध्ययुगीन सोच का पर्दाफ़ाश करने वाली कविताएँ हैं।

कविता के लिए चौंकाने वाली ख़बर और चौंकाने वाली बात यह है कि कविता की जो युवा पीढ़ी है, उसकी तादाद अच्छी-ख़ासी बढ़ रही है। बिहार के संदर्भ में कहें, तो पंकज चौधरी, प्रत्यूषचंद्र मिश्र, मनोज कुमार झा, मिथिलेश कुमार राय, अंचित, नताशा आदि युवा कवि मित्रों ने काफ़ी आकर्षित किया है। इन सारे कवियों के साथ जोड़कर बिभाश कुमार को देखा जाए, तो इनका कहना, इनका भाव, इनका विचार, इनका उद्देश्य बाक़ी कवियों से भिन्न इस अर्थ में है कि इनकी कविता संवेदना के स्तर पर, अनुभूति के स्तर पर, अनुभव के स्तर पर, बोध के स्तर पर एक अलग रंग लाती है। इनकी कविता की रंगत एक भिन्न तरह की अर्थछटा बिखेरती है, ‘रेत जा घरौंदा बनाते बच्चे से / पूछा मैंने यूँ ही कौतूहलवश / जीवन कहाँ है प्यारे (पृष्ठ 31)।’ या फिर, ‘सुनाई पड़ती अक्सर / गर्भस्थ शिशु बालिका की / यातना भरी चीख़ (पृष्ठ : 40)।’ या फिर, ‘मेरे गाँव के समीप / उग आए हैं / नागफनी के कुछ पौधे / उसके काँटे / सभी को चुभते हैं / तभी तो / सभी उनसे / दूर / बहुत दूर हो जाते हैं (पृष्ठ : 42)।’ या फिर, ‘बेबस / मुग्ध / देख रही है अपलक / बिलकुल माँ की भाँति / वह / लकड़ी चुनती बुढ़िया (पृष्ठ : 44)।’ या फिर, ‘अलाव के पास / बैठा वह बूढ़ा / न जाने क्यों / मुझे अच्छा लगता है (पृष्ठ : 63)।’ या फिर, ‘ढूँढ़ता हूँ मैं अक्सर / शब्दकोश में / उस शब्द को / कह सकूँ जिसे बेहद अपना (पृष्ठ : 73)।’

एक सौ तीस पृष्ठों तक फैली इस ‘मौन बहती धाराएँ’ में बिभाश कुमार की पचासी के क़रीब कविताएँ हैं। ये कविताएँ मनुष्य के मौन बहते रहने की व्यथाएँ हैं। लेकिन इन कविताओं को पढ़कर पाठक अपना मौन भूल जाना चाहेंगे। ये कविताएँ मौन-स्वीकृति अथवा मौन-सम्मति की नहीं हैं। ये कविताएँ आपके चुप रहने की, ख़ामोश रहने की, कुछ न बोलने की अवस्था से विद्रोह की कविताएँ हैं। ये कविताएँ आपको आप ही के मौनालाप के विरुद्ध खड़ा करती हैं। असल में हो क्या रहा है, हम पर ज़ुल्म की इंतहा जब तक बढ़ नहीं जाती, चरम सीमा लाँघ नहीं जाती, आख़िरी हद पार कर नहीं जाती, हम चुप साधे रहते हैं। तभी बिभाश कुमार की कविताएँ हमारे ‘मौनी’ बने रहने के विरुद्ध की कविताएँ हैं। तभी ये कविताएँ आपको ज़ालिमों के ख़िलाफ़ वक़्त पर खड़े होने की नसीहत करती हैं, ‘होती नहीं हैं केवल अवरुद्ध बहती धाराएँ / कुत्सित परंपराओं के नाम पर / होता है प्रकट जब कोई / लेकर संहिता / नारी-अस्मिता और / दलित-विमर्श पर / संवेदनाएँ होती हैं तब / आक्रोश और कुंठा से व्यथित / तभी संभावनाओं का स्रोत / हो जाता है अवरुद्ध (पृष्ठ : 127)।

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