सम्पादकीय [सुशान्त सिन्हा] :
बल्कि देखा जाए तो यह अपने मत देने के अधिकार को खड्डे में डालने जैसा है. नागरिकों या दूसरे शब्दों में कहें तो गैरसरकारी संगठनों की मांग पर चुनाव आयोग ने आम मतदाताओं को पिछले चुनावों से नोटा के प्रयोग की सुविधा भी दे दी है. नोटा यानी चुनावों में खड़े हुए उम्मीदवारों में से भी कोई भी उम्मीदवार या दल के प्रति अविश्वास होना या राजनीतिक दलों के प्रति विरोध जाहिर करना है पर यह समस्या का समाधान ना होकर देखा जाए तो जिम्मेदार मतदाताओं का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार ही माना जाएगा. सोचने की बात है कि कुछ मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग कर भी लिया तो इसका परिणाम यह तो होने वाला नहीं है कि उस क्षेत्र से कोई विजयी नहीं होगा या यह भी नहीं हो सकता कि सरकार ना बने. ऐसे में नोटा के प्रयोग से मिलने वाला कुछ भी नहीं है. नोटा के प्रयोग की जगह अपनी बात कहने का अन्य विकल्प भी खोजा जा सकता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेष परिस्थितियों को छोड़ दिया जाए तो यह साफ हो जाना चाहिए कि सरकार चुनने का अधिकार हमें पांच साल में एक बार मिलता है. अब सरकार चुनने के अधिकार को भी हम नोटा प्रयोग के नासमझी भरे निर्णय से एक तरह से खो देते हैं.
हमारे देश की चुनाव व्यवस्था का सारी दुनिया लोहा मानती है. हालांकि पिछले सालों से हारने वाले राजनीतिक दल कुछ संगठनों को आगे कर ईवीएम में हेराफेरी का आरोप लगाने लगते हैं. ईवीएम की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाकर जनादेश को चुनौती देने लगते हैं. हालांकि चुनाव आयोग ने खुली चुनौती देकर ईवीएम के साथ छेड़छाड़ को सिरे से खारिज कर दिया है. अब यह साफ हो चुका है कि विश्व के अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में अधिक शांतिपूर्ण व निष्पक्षता से चुनाव होने लगे हैं. हालांकि हारने वाले दल ही प्रक्रिया को लेकर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते हैं. इससे पहले उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोआ सहित पांच राज्यों में हुए चुनावों के बाद विपक्षी दलों ने हार का ठीकरा ईवीएम मशीन पर डालने का प्रयास करते हुए चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया था पर जिस तरह से चुनाव आयोग ने इसे खुली चुनौती के रूप में लेते हुए ईवीएम से छेड़छाड़ सिद्ध करने की जिस तरह से चुनौती दी उससे सभी दल बगले झांकने लगे. हारने वाला दल ईवीएम को दोष देने लगता है जिसे उचित नहीं माना जा सकता. अब तो वीवीपेट का निर्णय भी किया जा चुका है.
चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और ईवीएम जैसी बेहतरीन सुविधा के बावजूद नोटा के प्रयोग जैसा माहौल बनाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता. कुछ स्थानों पर मतदान के बहिष्कार का माहौल भी बनाया जाता है. मतदान के अधिकार का उपयोग नहीं करने या मतदान का बहिष्कार करने को देश की सर्वोच्च अदालत ने भी गंभीरता से लिया है. पिछले दिनों ही सर्वोच्च न्यायालय की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी आई कि जो मतदान नहीं करते उन्हें सरकार के खिलाफ कुछ कहने या मांगने का भी हक नहीं है. आखिर क्या कारण है कि शत-प्रतिशत मतदाता मतदान केन्द्र तक नहीं पहुंच पाते? सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी और चुनाव आयोग के मतदान के प्रति लगातार चलाए जाने वाले कैम्पेन के बावजूद मतदान का प्रतिशत ज्यादा उत्साहित नहीं माना जा सकता. यह भी सही है कि चुनाव के दौरान सुरक्षा बलों की माकूम व्यवस्था व बाहरी पर्यवेक्षकों के कारण अब धन−बल व बाहु बल में काफी हद तक कमी आई है. ईवीएम और चुनाव आयोग के निरंतर सुधारात्मक प्रयासों का ही परिणाम है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता और चुनावों में दुरुपयोग के आरोप तो अब नहीं के बराबर ही लगते हैं. छिटपुट घटनाओें को छोड़ दिया जाए तो अब चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता.
हम बड़े गर्व से दावे करते हैं कि इस बार सर्वाधिक प्रतिशत लोगों ने लोकतंत्र के इस यज्ञ में आहुति दी है. मतदान के पुराने सारे रेकार्ड तोड़ दिए हैं. ज्यादा मतदान से इस दल को फायदा होगा या दूसरे दल को. मतदान प्रतिशत से किसको कितना लाभ मिलेगा या हानि होगी इसका विश्लेषण भी होने लगता है. यह विश्लेषण भी होने लगता है कि किस जाति−धर्म व किस आयु वर्ग के लोगों ने कितना मतदान किया है. यह भी विश्लेषण करते नहीं चूक रहे कि महिलाओं का अमुक दल के प्रति झुकाव अधिक है या पुरुषों का अमुक दल के साथ अधिक झुकाव है. टेलीविजन चैनलों पर हम यह विश्लेषण करते भी नहीं थक रहे कि किस दल को कितना मत मिलने जा रहा है. कौन जीत रहा है और कौन-सा दल हार रहा है. किसको कितना मत-प्रतिशत मिल रहा है. यह भी कि किस दल के प्रति मतदान का प्रतिशत कितना स्विंग कर रहा है.
चुनाव आयोग के मतदान करने के लिए सघन प्रचार अभियान और सरकारी व गैरसरकारी संस्थानों और मीडिया द्वारा मतदान के लिए प्रेरित करने के बावजूद मतदाताओं की मतदान के प्रति बेरुखी गंभीर चिंता का विषय है. गैरसरकारी संगठनों, सामाजिक मंचों, चैनलों पर लंबी लंबी बहस का हिस्सा लेने वाले बुद्धिजीवियों को मतदाताओं को लोकतंत्र के यज्ञ में आहुति देने के लिए प्रेरित करने का अभियान चलाना चाहिए. मतदान का बहिष्कार या नोटा का प्रयोग आपकी नाराजगी तो दर्शा सकता है पर साथ ही आपके मतदान के अधिकार के प्रति गैरजिम्मेदारी भी साफ कर देता है. आखिर आम मतदाता का भी दायित्व होता है. सरकार चुनने के लिए हमें पांच साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है. यदि इस अवसर को भी हम बहिष्कार या नोटा के प्रयोग से खो देते हैं तो इससे अधिक गैरजिम्मेदाराना काम क्या होगा.
[Editor In-chief: Sushant]
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