अटल बिहारी वाजपेयी : हार नहीं मानी, कभी रार नहीं ठानी

(साभार : दैनिक जागरण)

अभावों में छात्रवृत्ति से पढऩे वाला, खर्च चलाने को ट्यूशन पढ़ाने वाला नौजवान सत्ता के शीर्ष तक कैसे पहुंचा। विरोधियों के भी दिल तक कैसे पहुंचा। इन सभी सवालों की भूख मिटाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जीवन या तमाम संस्मरण पढऩे की जरूरत नहीं, सिर्फ उनके द्वारा सृजित साहित्य संपदा में से एक कविता की एक पंक्ति 'हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा...' के भाव समझ लेने की जरूरत है। यही उनके 91 साल का जीवन दर्शन है और यही सफलता का एक सूत्र भी।

भारत रत्न, पद्म विभूषण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी आज 91 वर्ष के हो रहे हैं। उनकी राजनीतिक विरासत संभाल रही भाजपा देशभर में इसे पर्व की तरह मनाएगी। जयकारे गूंजेंगे, उनकी रचित कविताएं गूंजेंगी। मगर, कानपुर के डीएवी कॉलेज की पुरानी इमारत में उनके संघर्षों के गीत आज भी गूंजते हैं। उस दौर के उनके साथी बेशक जुबानी सुनाने को उपलब्ध न हों, लेकिन अटल जी से जुड़े रोचक संस्मरण ही इस संस्थान के लिए 'साहित्य' के रूप में धरोहर बन गए हैं।

डीएवी कालेज के प्राचार्य प्रो. एलएन वर्मा के मुताबिक, अटल बिहारी जी ने 1945-46, 1946-47 के सत्रों में यहां से राजनीति शास्त्र में एमए किया। प्राचार्य एक पत्र सहेजे रखे हैं, जो प्रधामंत्री रहते हुए अटल जी ने लिखा था, जो साहित्यसेवी बद्रीनारायण तिवारी ने संस्थान को सौंप दिया। उस पत्र में कुछ रोचक और गौरवान्वित कर देने वाली घटनाओं का जिक्र है।

जहां पिता और पुत्र सहपाठी थे

पत्र में जिक्र है कि 1948 में जब अटल जी ने डीएवी कॉलेज में एलएलबी के लिए दाखिला लिया तो सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त उनके पिताजी पं. कृष्णबिहारी लाल वाजपेयी ने भी डीएवी से एलएलबी का फैसला कर लिया। छात्रावास में पिता-पुत्र एक ही कक्ष में रहते थे। विद्यार्थियों के झुंड के झुंड उन्हें देखने आते थे। दोनों एक ही कक्षा में बैठते थे। कभी पिताजी देर से पहुंचते तो प्रोफेसर ठहाकों के साथ पूछते- कहिये आपके पिताजी कहां गायब हैं? और कभी अटल जी को देर हो जाती तो पिताजी से पूछा जाता- आपके साहबजादे कहां नदारद हैं? इस असहज स्थिति से बचने के लिए बाद में दोनों ने सेक्शन बदलवा लिया था। हालांकि यहां से अटल जी एलएलबी की पढ़ाई पूरी नहीं कर सके। जनसंघ ने राजनीतिक दायित्वों के लिए उन्हें लखनऊ बुला लिया था।

आजादी की कविता पर मिला था दस रुपये इनाम

1947 में देश की आजादी का जश्न 15 अगस्त को छात्रावास में मनाया गया। तब अटल जी ने 'अधूरी आजादी' घोर लापरवाही : पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का शैक्षणिक रिकार्ड गायबका दर्द उकेरते हुए कविता सुनाई। तब समारोह में शामिल आगरा विवि के पूर्व उपकुलपति लाला दीवानचंद ने उन्हें दस रुपये इनाम दिया था।

सिंधिया ने पढ़ाई को दी थी छात्रवृत्ति

अटल जी के पत्र में यह जिक्र भी है कि ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक करने के बाद वह चिंता में थे। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। भविष्य अंधकार में था। तब ग्वालियर रियासत के तत्कालीन महाराज जीवाजीराव सिंधिया ने 75 रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति दी, जिससे अटल जी ने पढ़ाई की। यही नहीं, कानपुर में पढ़ाई के दौरान खर्च चलाने के लिए पिता-पुत्र हटिया मोहाल स्थित सीएबी स्कूल में ट्यूशन देने जाते थे। अटल जी भूगोल पढ़ाते थे और उनके पिता अंग्रेजी।

कानपुर में किया तीन प्रतिमाओं का अनावरण

हार नहीं मानूंगा का अर्थसार उनके संघर्ष बयां करते हैं और रार नहीं ठानूंगा की सोच से सर्वमान्य बनने का ये उनका तरीका था। साहित्यसेवी बद्रीनारायन तिवारी ने कानपुर में थोड़े-थोड़े अंतराल पर महाकवि भूषण, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और लोकमान्य तिलक की मूर्तियां लगवाईं। उन्होंने अटल जी को आमंत्रित किया तो दलभेद न मानते हुए वह तीनों बार कानपुर आए और मूर्तियों का अनावरण किया।

~गिद्धौर
25/12/2016, रविवार

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