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3 दिसंबर : विश्व विकलांगता दिवस पर विशेष

ज़रा सोचिए विकलांगों की हालत, जहाँ आज के समय में जब खून के रिश्ते तक धोका दे जाते है और अपना सहारा स्वयं बनना पड़ता है, ऐसे में अगर आप का खुद का शरीर ही साथ न दे तो इंसान किस उम्मीद पर जियेगा? किसके सहारे जियेगा? कैसे जियेगा? फिर भी यह अपनी अलग दुनिया बनाकर खुश रहना सीख लेते हैं। लोगो की हीनता भरी नजरों की आदत डाल लेते हैं। हालांकि सरकार ने इनके लिए कई योजनाएं मुहैया करायी है, मगर सोचने की बात ये है कि क्या सिर्फ इतना ही इनके लिए काफी होगा? विकलांग दिवस तक सुनिश्चित करने  पर इन सबका क्या फायदा अगर इनसे उन लोगों को कोई ख़ुशी ही न मिले, क्यूंकि इनका आत्मसम्मान तो अभी भी हर घडी ठोकर ही खा रहा है। इस मुद्दे के संदर्भ में सबसे बड़ा प्रश्न यह है की विकलांगों को बेसहारा और अछूत क्यों समझा जाता है? उनकी भी दो आँखे दो कान दो हाथ और दो पैर हैं और अगर इनमे से अगर कोई अंग काम नहीं करता तो इसमें इनकी क्या गलती? यह तो नसीब का खेल है। यह विधाता की रचना है। इंसान तो यह तब भी कहलायेंगे, जानवर नहीं। फिर इनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव कहाँ तक सार्थक है? किसी के पास पैसे की कमी है, किसी के पास खुशियों की, किसी के पास काम की, तो अगर वैसे ही इनके शारीरिक, मानसिक, ऐन्द्रिक या बौद्धिक विकास में किसी तरह की कमी है तो क्या बड़ी बात है? कमी तो सबमे कुछ न कुछ है ही, कोई किसी भी नजरिये से परिपूर्ण तो है नहीं। तो इन्हें अलग नज़रों से क्यों देखा जाए? अगर हम इनकी मदद करने के बारे में सोचें तो हर कोई चैन से साथ रह पायेगा, जैसे की अगर किसी के सुनने की शक्ति कमज़ोर है तो उसे "लिप-रीडिंग" यानी होठों को पढ़ने की विद्या सिखाई जा सकती है। इनकी आँखों का इस्तेमाल करके इन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। वैसे ही अगर कोई देख नहीं सकता तो उसके सुनने की शक्ति को इतना मज़बूत बनाये की वो कानों से ही देखने लगे और नाक से महसूस कर सके। कोई अंग ख़राब है तो ऐसा पहनावा दें की वो छिप जाए और इंसान पूरे आत्मविश्वास के साथ सर उठाकर चल सके। ऐसी कई तमाम चीजें हैं जिससे विकलांगता की समस्या को अनदेखा किया जा सकता है।
अन्यथा, दवा और दुआ तो दो ऐसे विकल्प है जिनपर यह दुनिया चलती है। अब इस समस्या को हम इस दुनिया से मिटा नहीं सकते पर हाँ इससे लड़कर हम इसे दुनिया से गायब ज़रूर कर सकते हैं। बात सिर्फ पहल करने की है।
ऐसे वातावरण तैयार किया जाए ताकि निःशक्तों की सहायता के लिए सभी आगे आएं और निःशक्त भी सम्मान, स्वाभिमान से आगे बढ़ते हुए देश की मुख्यधारा में शामिल हो विकास में सहभागी बन सकें।
मानव को अमर बनाने के बजाय वैज्ञानिक ऐसा कुछ करें कि देश के लाखों नेत्रहीन, मूक बधिर और मंदबुद्धि बच्चों एवं युवाओं के जीवन में उजाला आ सके। हमें गर्व है कि हम उस युग में सांस ले रहे हैं जहां वैज्ञानिकों ने अपने अथक परिश्रम, लगन और इच्छाशक्ति से क्लोन तक बना लिये हैं और कई अबूझ पहेलियों को सुलझाने में सफलता पा चुके हैं। लेकिन आपलोगों की नजर जब भी स्पेशल स्कूलों में बहुविकलांग बच्चों और उनके परिवार की पीड़ा पर पड़े तो आपलोगों की प्रतिस्पर्धात्मकता दम तोड़ देगी। इस तरह के प्रबंधन मे तो मोदी जी के अच्छे दिन का ख्वाब अधर मे ही लटका रह जाएगा। ये तो साक्षात प्रत्यक्ष है और प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता।

(अभिषेक कुमार झा)
~गिद्धौर
03/12/2016, शनिवार

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