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Wednesday, 24 May 2017

गिद्धौर : कभी नदी थी यहाँ, अब बना खेल मैदान



 "बेटा आज जहाँ तुम क्रिकेट खेल रहे हो न, आज से कुछ वर्ष पूर्व यहां एक उलाई नदी हुआ करती। थी। जिसकी रेत को हमने और हमारी जरूरतों ने मिट्टी के रूप में प्रतिस्थापित कर दिया। और तुम्हें पता है, ये जो दुर्गा मन्दिर तुम देख रहे हो न,  गिद्धौर के इसी उलाई नदी मे स्नान कर हम सब दंडवत प्रणाम करते हुए माँ दुर्गा के चौखट तक जाते थे। उफ वो भी क्या दिन थे, जब चार बजे सुबह माता रानी के जगमग करते हुए द्वार की रोशनी इस जल पर पड़ती थी तो दृश्य मनोरम और हृदय प्रफुल्लित हो उठता था। इससे अच्छा तो वो चार दिन की चाँदनी थी, न जाने ये अंधेरी रात कहां से आ गयी ।"

अभी जहाँ नदी है, उसके किनारे क्रिकेट खेलते हुए यह वाकया उन नई पीढ़ियों को अपने माता-पिता से सुनने को मिलेगा। क्रिकेट की पीच से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरा तात्पर्य नदियों पे रेत के खनन से उपजे हुए हरे घास धीरे-धीरे मैदान का रूप ले रही है, उससे है। मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, 'जल ही जीवन है' और 'पानी को बर्बादी से बचाएँ' जैसे लुभावने नारे तो सुनने और पढ़ने को तो बहुत मिलते हैं लेकिन कीमती जल को बचाने के प्रति न तो जनता गंभीर है, न ही सरकार। 

नहाने, धोने, सिंचाई करने, पूजा-पाठ से लेकर सभी संस्कार आज भी इन्हीं नदियों के किनारे संपन्न होते हैं। इन जीवनदायिनी नदियों के सूख जाने से हमारी क्या दुर्दशा होगी शायद हमें अभी आभास नहीं हो रहा है। अब न ही जल जीवन है, और न मछली उसकी रानी!
वैश्वीकरण के इस  दौर ने तो इन पंक्तियाँ के अर्थ ही बदल डाले ।पानी का जीवन में क्या महत्व है यह नदियों के किनारे बसने वाले ही बता सकते हैं। बचपन मे पढा था, नदियाँ हमारी जीवन रेखा हैं। माफियाओं द्वारा रेत का दोहन करने के लिए नदियो को नुकसान पहुंचाने का यह खेल गिद्धौर सहित पूरे जिले की नदियों में खेला जा रहा है। न केवल पीने के पानी बल्कि खेती के लिए गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि नदी के किनारे खेती होनी चाहिए। अगर उनके दोनों किनारों पर कब्जा करके अट्टालिकाएँ (बड़े और ऊँचे मकान) खड़ी की जाती रही, तो नदियों की सांसें थम सी जाएँगी।
इन नदियों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए गंभीरता कोई नहीं  दिखा रहा, लेकिन गिद्वौर समेत जमुई जिले की सभी नदियाँ आज भी समाज के कारनामे को समाजिक दर्पण मे रखती है।


यदि यूँ ही नदियों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराते रहे तो वो दिन दूर नहीं, जब करोड़ो लोगों की आस्था को समेटे पावन गंगा करोड़ों लोगों के आंखों के सामने से ओझल हो जाएगी और यदि ऐसा हुआ तो हमारी जीवनदायिनी नदियाँ इतिहास के पन्नों तक सीमित रह जाएँगी। विचार करने योग्य बात यह है कि अगर रेत नहीं रहेगा तो नदी कैसे रहेगी? अगर नदी न रहा तो जल कहाँ से आयेगा? अगर जल न रहा तो जीवन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। आने वाली पीढ़ी इस कहावत को कतयी नहीं भूल पायेगी, कहावत होगा -" तब पाछे पछताय क्या होत, जब नदीयन बन गयी खेत !

(यह आलेख www.gidhaur.blogspot.com के लिए अभिषेक कुमार झा द्वारा लिखी गई मूल रचना है एवं कहीं और प्रकाशित/प्रसारित नहीं हुई है)
~ गिद्धौर | 09/05/2017, मंगलवार 


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