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चन्द्रशेखर का साथ नहीं देना स्वतंत्रता के बाद राजपूतों की सबसे बड़ी राजनैतिक भूल!

विशेष (अनूप नारायण) : शरद पवार ने 'अॉन माई टर्मस्' में लिखा है कि राजीव गांधी के कहने पर जब मैं चंद्रशेखर जी के पास गया तो उन्होंने मुझे देखते ही बोला क्या तुम्हें राजीव ने भेजा है? मैं बताया कि हां, उन्होंने मुझे आपके पास इसलिए भेजा है कि आप अपने इस्तीफे के निर्णय पर पुनर्विचार करें, तो चंद्रशेखर जी का जवाब था "जाओ और उनसे कह दो चंद्रशेखर 1 दिन में तीन बार अपना विचार नहीं बदलता है ।"

यह था चंद्रशेखर का तेवर
  दरअसल चंद्रशेखर के साथ सामयिक इतिहास ने न्याय नहीं किया, और ना ही देश में चल रहे जाति और वर्ग की राजनीति में उनके स्वजातीय ने ही खुलकर साथ दिया, वर्ना आज भारतीय राजनीति का परिदृश्य कुछ अलग होता। स्वतंत्रता के बाद संभवतः राजपूतों की यह सबसे बड़ी राजनीति भूल थी । उन्हें थोड़ा समय और समर्थन मिला होता तो अपनी क्षमता एवं कार्यशैली के माध्यम से देश को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने में सफल होते ।
  पूर्व राष्ट्रपति प्रवण मुखर्जी ने लिखा था कि यदि चंद्रशेखर को और मौका मिला होता तो वह देश के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में एक साबित हुए होते। वहीं उनके प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान राष्ट्रपति रहे वेंकटरमन ने कहा था चंद्रशेखर के पास अगर बहुमत होता तो वह बेहतर होता क्योंकि एक तरफ वो अयोध्या का स्थायी हल निकालने की कोशिश कर रहे थे तो दूसरी तरफ सिख समस्या सुलझाने तथा कश्मीर को लेकर सकारात्मक कदम उठाए जा रहे थे, हिंसाग्रस्त असम में शान्ति बहाल कर  चुनाव कराए गए ।
   दरअसल चंद्रशेखर ने मात्र 4 महीने के कार्यकाल में विकट परिस्थितियों में देश को बेहतर रास्ते पर ले जाने के लिए जो कदम उठाए थे उसकी कल्पना कभी कांग्रेस या राजीव गांधी ने नहीं की थी। और उन्हें भय होने लगा था कि यदि चंद्रशेखर को और समय दे दिया जाए तो वह भारतीय राजनीति में स्थायी रूप से स्थापित हो जाएंगे, देश में उसे अपार समर्थन मिलने लगेगा।
  अयोध्या विवाद को सुलझाने के लिए चंद्रशेखर में मुस्लिम और हिंदू दोनों पक्षों को वार्ता के लिए बुलाया था इस दौरान इस बात पर सहमति ही बन रही थी कि मुसलमान अयोध्या में अपना दावा छोड़ देंगे, लेकिन इसके बदले मथुरा, काशी सहित देश के अन्य भागों में जो 1947 में आजादी के वक्त स्थिति थी वही कायम रहना चाहिए। वार्ता के दौरान अयोध्या विवाद से जुड़े कुछ नेताओं ने आनाकानी करनी शुरू की थी तो उन्होंने अस्पष्ट कहा था कि मैं किसी मुख्यमंत्री के कंधे पर रखकर गोली नहीं चलाऊंगा बल्कि मैं खुद आदेश देकर वहां गोली चलवा सकता हूं यदि आप लोगों ने स्थिति बिगाड़ने की कोशिश की तो । इसके बाद विवाद से जुड़े नेताओं ने बाहर निकलकर यह प्रतिक्रिया दे दी थी कि 'यह अजीब नेता है बंद कमरे में धमकाता है!'
   जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे उस समय देश जल रहा था, देश में 70 से 75 जगह कर्फ्यू लगी हुई थी आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गई थी, मात्र 3 सप्ताह का ही विदेशी मुद्रा देश में था, असम समस्या विकराल रूप धारण किए हुए थे, कश्मीर जल रहा था, पंजाब जल रहा था, लेकिन इस सभी समस्याओं पर नियंत्रण कायम करते हुए उन्होंने असम में चुनाव कराया।
  चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्वीडिश इंजीनियरों का अपहरण हुआ था और इसको लेकर वहां के राजदूत चंद्रशेखर से मिले थे । राजदूत को जाने के बाद चंद्रशेखर ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन किया। इस संबंध में चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में उनके प्रधान सचिव रहे एके मिश्रा लिखते हैं कि  चंद्रशेखर ने नवाज शरीफ को बोला कि आपके लोगों ने मासूम इंजीनियरों का अपहरण कर लिया है मियां, इस पर नवाज शरीफ ने कहा कि हां हमने भी सुना है यह आतंकवादियों का काम है । इस पर चंद्रशेखर ने कहा था कि यह दुनिया के दिखाने के लिए यह काम आतंकवादियों काम है, लेकिन हकीकत आप जानते हैं मियां! मैं चाहता हूं कि उन्हें सुरक्षित रिहा कर दिया जाए। और चंद दिनों के बाद ही उन इंजीनियरों को बाइज्जत रिहा कर दिया गया था।
  दरअसल चंद्रशेखर को कांग्रेस ने 1971 के बाद कभी पसंद नहीं किया। 1971 के चुनाव में अपने किए गए वादे को धरातल पर लाने के लिए जब बात चंद्रशेखर ने इंदिरा जी के पास रखा था और दबाब बनाना चाहते थे तो  उसी समय से कांग्रेस का नजरिया चंद्रशेखर के प्रति बदल गया था । बिहार में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जब आंदोलन ने अंगड़ाई लेने शुरू किया तो चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी से कहा था कि आप जयप्रकाश से समझौता कर लें, जयप्रकाश नारायण की संत प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं और जब राज्यसत्ता संतसत्ता से टकराएगी तो राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता है। लेकिन यह बात इंदिरा जी नहीं मानी और उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। इंदिरा गांधी ने सत्ता में पुनः वापसी के बाद भी चंद्रशेखर को कांग्रेस में आने का आमंत्रण दिया था लेकिन वे तैयार नहीं हुए थे। दरअसल जॉर्ज फर्नांडिस के बाद चंद्रशेखर पहला व्यक्ति थे जो आपातकाल के दौरान सबसे अधिक दिनों तक पटियाला जेल में रहे थे इसके बावजूद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो चौधरी चरण सिंह चाहते थे कि इंदिरा गांधी का सरकारी आवास खाली करा दिया गया है लेकिन चंद्रशेखर ने इसका पुरजोर विरोध किया था, वह कहते थे की राजनीति में कभी बदले की भावना से काम नहीं होनी चाहिए तथा बड़े नेताओं का सम्मान करना सब का फर्ज बनता है। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस चंद्रशेखर के साथ हमेशा छल करते रही । नेहरू परिवार से जुड़े अरुण नेहरू का ही यह साजिश था की BP लहर के बाद जब संसदीय दल के नेता चुनने के बात हुई तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पहले देवीलाल का नाम लिया था और फिर देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपना नेता माना ।जब यह घटनाक्रम हुआ तो बाहर निकलकर चंद्रशेखर ने कहा था की सरकार का प्रारंभ ही जब कपट पूर्ण तरीके से हो रही है तो उसका भविष्य क्या होगा?
  लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के व भाजपा द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिर गई थी, चंद्रशेखर जी अपने आवास पर थे कि रात करीब 11 बजे रमेश भंडारी का फोन आ गया था कि आप कॉफी पीने मेरे आवास पर आएं । चंद्रशेखर जी समझ गए थे कि इतनी रात को भला कोई कॉपी पर क्यों बुलाएगा, जरूर मामला राजनीतिक है । वह रमेश भंडारी के आवास पर पहुंचे जहां पहले से राजीव गांधी तथा आर के धवन उपस्थित थे । राजीव गांधी उनके सामने प्रस्ताव रखा कि आप सरकार बनाएं हम समर्थन देंगे लेकिन वह समर्थन बाहर से होगा । चंद्रशेखर ने कहा कि आप को सरकार में शामिल होना चाहिए और यदि सीनियर लीडर सरकार में शामिल नहीं होते हैं तो कम से कम नौजवानों की भागीदारी जरूर सुनिश्चित करें। इस पर चंद्रशेखर को राजीव गांधी ने आश्वस्त किया था एक दो माह के बाद मैं इस पर निर्णय लूंगा। लेकिन जब कश्मीर, पंजाब , असम जैसे ज्वलंत मुद्दों तथा देश के लिए नासूर बने अयोध्या मामले के समाधान हेतु चंद्रशेखर ने निर्णायक दौर पर पहुंचने का प्रयास किया तो यह बात कांग्रेस को नागवार लगी, तथा सरकार को समर्थन जारी रखना अपने लिए खतरा महसूस करने लगे । उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय ने राज्य मंत्री रहे कमल मोरारका ने कहा था कि अयोध्या मसले के समाधान निर्णायक दौर में थी और चंद्रशेखर सरकार जाने का कारण वही बना,  क्योंकि अयोध्या विवाद का समाधान का श्रेय चंद्रशेखर के माथे कांग्रेस जाने देना नहीं चाहती थी और ना ही उसका स्थाई समाधान चाहती थी । चंद्रशेखर जी अपनी धुन के पक्के आदमी थे तथा वे जो निर्णय ले लेते थे उसे कभी बदलते नहीं थे। ऑपरेशन ब्लू स्टार जब पंजाब में चल रहा था तो उस समय उन्होंने इंदिरा गांधी के निर्णय का विरोध किया था और जब पुनः  लोकसभा चुनाव के दौरान बलिया पहुंचे थे तो प्रायोजित तरीके से रेलवे स्टेशन पर ही उनका यह कहते हुए विरोध किया गया था कि बलिया भिंडरवाला वापस जाओ वापस जाओ। इस विरोध के दौरान वो चुप-चाप वहीं खड़े रहे तथा जब लोग शांत हुए तो उन्होंने कहा कि मैं राजनीति का मामूली कॉमा, फुल स्टॉप भी नहीं हूं। दुनिया में राजनीति करने वाले आएंगे जाएंगे लेकिन चुनाव जीतने के लिए मैं अपना मत नहीं बदलता।
   दरअसल चंद्रशेखर जहां भी रहते थे चट्टान की तरह खड़े रहते थे जिसे कोई बिगाड़ नहीं सकता था कांग्रेस ने उन पर राजीव गांधी के फोन टेप करने का मामूली आरोप लगाया था सरकार गिराने के लिए। कांग्रेस को भय हो गया था कि चंद्रशेखर द्वारा किए जा रहे कार्य उसे भारतीय राजनीति में स्थायित्व की तरफ ले जा सकता है। समर्थन वापसी के बाद जब चुनाव हुआ तो वो अकेला पड़ गए थे, उनके स्वजातीय लोगों ने भी खुलकर साथ नहीं दिया, जो कि आज विभिन्न राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक फोरम पर सत्ता में भागीदारी की बात उठा रहे हैं। यदि उस समय चंद्रशेखर का वह खुलेआम साथ दिए होते तो चंद्रशेखर में इतनी क्षमता थी कि उन्हें सत्ता के केंद्र बिंदु बने रहने से कोई रोक नहीं सकता था।
  देश में आजादी के बाद राजपूत वर्ग में ऐसा कोई नेता नहीं उभरा जो अपनी क्षमता पर समाज के सभी वर्गो का समर्थन हासिल करने की जज्बा रखता हो। राजनीतिक मतभेद होने के बावजूद व्यक्तिगत सम्बन्ध प्रगाढ़ हो तथा विपरीत परिस्थिति में भी अपनों के साथ खुलकर खड़े होने की हिम्मत हो। वह स्थान केवल और केवल चंद्रशेखर को ही दिया जा सकता है । बाकी अन्य लोगों ने राजपूत नेता होने का दम भरते हुए केवल अपने और अपने परिवार को आगे बढ़ाने का ही प्रयास किया है ।और वह भी दूसरे दलों के साथ पिछलग्गू की भूमिका निभाते हुए.....!

    उनके पुण्यतिथि पर सत् सत् नमन

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