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पुण्यतिथि पर विशेष : मदद करना दादा का स्वभाव हो चुका था

पूर्व रेल राज्य मंत्री, विदेश राज्य मंत्री एवं बांका सांसद रह चुके स्व० दिग्विजय सिंह की पहचान विकासपुरुष एवं सदैव मददगार रहने वाले शख्सियत के रूप में होती रही है. प्रेमवश उन्हें लोग 'दादा' कहकर सम्बोधित किया करते थे. हालाँकि अब वो हमारे बीच नहीं हैं. इस 24 जून को उनकी सातवीं पुण्यतिथि मनाई जाएगी. इस अवसर पर दादा के साथ बिताये पल और स्नेह की स्मृतियाँ कलमबद्ध की है गिद्धौर निवासी धनंजय कुमार सिन्हा ने. यह आलेख धनंजय कुमार सिन्हा के फेसबुक से लेकर अक्षरशः यहाँ प्रसारित की गई है. 
तब मैं पूना में था. मैंने दादा को फोन लगाया कि वहाँ कुछ दिक्कतें आ रही हैं. दादा ने कहा कि वे मुम्बई में हैं और पूने ही आ रहे हैं. राइफल एसोसियेशन का कुछ कार्यक्रम था. उन्होंने शाम 7 बजे तक पूना के आउटस्कर्ट पर अवस्थित एक होटल में पहुँचने को कहा.
जगह खोजने में परेशानी न हो इसलिये मैंने पूना के ही एक अन्य साथी को भी अपने साथ ले लिया. फिर भी हमें पहुँचने में थोड़ी विलम्ब हो गई तब तक दादा का 3-4 बार कॉल आ चुका था. मेरे होटल तक पहुँच जाने का अंदाज कर दादा कमरे से निकलकर लिफ्ट से होते हुए ग्राउंड फ्लोर पर पहुँचे, और मैं बगल वाले लिफ्ट से ग्राउंड फ्लोर से होते हुए सेकेंड फ्लोर पर. लिफ्ट में भी मुझे उनका कॉल आया था तो आवाज़ साफ सुनाई नहीं दे रही थी पर मैंने उन्हें बताया कि मैं लिफ्ट में हूँ. ऊपर पहुँचते ही मैंने वहाँ खड़े एक होटल कर्मचारी से दादा के कमरे के बारे में पूछा तो उसने बताया कि अभी-अभी ही वे नीचे उतरे हैं. मैं तुरंत भागते हुए लिफ्ट से नीचे उतरा तो देखा दादा और उनके साथ राइफल एसोसिएशन के कई वरिष्ठ अधिकारी लिफ्ट के पास रुके हुए थे. उन वरिष्ठ अधिकारियों में से एक-दो का नाम मैंने सुन रखा था, टेलीविज़न पर भी देखा था. खुद का इतना महत्व देखते हुए मुझे खुशी भी हो रही थी. फिर दिमाग़ में यह बात आई कि ये सभी वरिष्ठ अधिकारी हमारे 'काकु' से तो छोटे ही हैं. बचपन से मैं दादा को 'काकु' ही बोला करता था. दरअसल बंगाल में लोग चाचा को काकु कहकर ही पुकारते हैं.  
फिर सभी लोग खाने के लिए रेस्टोरेंट में आ गये. दादा के साथ उनके एक सहयोगी बेचन काकु भी थे जिन्हें बचपन में हम बच्चे पीठ पीछे बेचन डाकू कहा करते थे. भोजन के बाद करीब साढ़े नौ बजे अन्य सभी लोग नीचे लिफ्ट के पास दादा को 'सी ऑफ' करके चले गये. दादा, बेचन काकु और मैं लिफ्ट से ऊपर पहुँचे. ऊपर राइफ़ल एसोसिएशन वालों ने दो कमरों की बुकिंग कर रखी थी. एक में दादा और उसके ठीक सामने बेचन काकु को कमरा दिया गया था. दादा अपने कमरे में प्रवेश करने लगे. मैं भी पीछे-पीछे उनके कमरे में जाने लगा. बेचन काकु थोड़ा हिचके और उन्होंने चाहा कि मैं दादा के कमरे में न जाऊँ तो अच्छा हो, पर मैंने उनकी बातों को अनदेखा किया. मुझे लगा कि वे भी इस बात का ज़्यादा बुरा नहीं माने. मुझे खुशी थी कि उस दिन बेचन काकु दादा के साथ थे वरना दादा के कोई तथाकथित भाई होते तो शायद मुझे ज़्यादा बाधित करने का प्रयास करते. हालाँकि यह तय था कि कोई भी ऐसा प्रयास विफल ही होता.
भीतर कमरा बहुत ही सुंदर और सुसज्जित था. पलंग का गद्दा बैठने पर 'आधा बित्ता' धँस जा रहा था. मैंने दादा से पूछा कि इस कमरे का किराया कितना है ? उन्हें पता नहीं था क्योंकि राइफ़ल एसोसिएशन वालों ने बुक कराया है. पर अंदाज से उन्होंने बताया कि कुछ आठ-दस हज़ार रुपये के करीब का हो सकता है. फिर मैंने पुणे में आ रही समस्या के बारे में उनसे दोहराया तो उन्होंने बताया कि पुणे पहुँचते ही सबसे पहले उन्होंने उसी समस्या को दूर करने का काम किया है. उन्होंने अगले दिन मुझे पुणे में ही एक व्यक्ति से मिलने के लिए कहा.
धनंजय कुमार सिन्हा
वे समाचार देखना चाहते थे इसलिए टेलीविज़न ऑन करने को कहा. एक रिमोट वहाँ रखा हुआ था जिसमें बस एक ही बटन था. मैंने चांप-चुंप के सब देख लिया पर टेलीविज़न ऑन नहीं हुआ. फिर उन्होंने रिमोट माँगा और खुद प्रयास करने लगे. मैं कमरे की दीवारों में स्विच ढूँढने लगा कि शायद कहीं और से कोई कनेक्शन हो. तब मैंने पाया कि पूरे कमरे में कहीं भी कोई स्विच नहीं है. तभी टेलीविज़न अचानक चालू हो गया. शायद दादा द्वारा रिमोट को छू-छा करने से ऐसा हुआ होगा. संयोग से एक अँग्रेज़ी न्यूज चैनल चल रहा था. थोड़ी देर में दादा ने मुझसे कहा, "हम अभी AICTE के मेंबर भी हैं इसलिए तुम बाँका में एक इंजीनियरिंग कॉलेज खोल लो. वहाँ ज़मीन भी है और अभी मान्यता वैगरह लेने में भी कोई दिक्कत नहीं होगी." फिर उन्होंने पूछा कि कॉलेज खोलने में कितना खर्च आएगा. मैंने जवाब दिया. उन्होंने हामी भरी और कहा कि जल्दी काम शुरू कर दो. मैंने कहा, "हम जो बजट बताए हैं वह बहुत ही इकॉनॉमिकल है, और आपसे आज पैसा माँगेंगे तो आप एक महीना बाद दीजिएगा, इससे सारा बजट गड़बड़ा जाएगा." वे हँसने लगे और बोले "ठीक है तुम बजट बनाकर उसमें डेट के साथ हमको दो कि किस-किस डेट में तुमको कितना-कितना पैसा चाहिए."
फिर मैंने पूछा कि किस ट्रस्ट के अंतर्गत कॉलेज बनेगा. तो उन्होंने कहा कि जिसके अंतर्गत बनाना है, बना लो. गिद्धौर फ़ाउंड़ेशन के अंतर्गत भी खोल सकते हो. मैंने कहा कि गिद्धौर फ़ाउंड़ेशन के अंतर्गत मैं काम नहीं कर सकूँगा. दादा जानते थे कि मैं ऐसा क्यों बोल रहा हूँ. फिर उन्होंने कहा कि तुम अपना अलग से एक ट्रस्ट बना लो और उसी के अंतर्गत कॉलेज खोलो. दादा के इस बात का मतलब मैं समझ पा रहा था. यह एक तरह से पूरा-का-पूरा अधिकार सौंपने जैसा था. ट्रस्ट हमारा, ज़मीन उनकी, पैसा भी उनका और पैरवी भी उनकी - मैं समझ पा रहा था कि बिना अहसास दिलाए दादा मुझे मदद करना चाहते हैं. मैंने भी हामी भर दी.
फिर किसान पंचायत और नये मोर्चा को लेकर बात हुई. मैंने कहा कि नये मोर्चा का सदस्यता शुल्क 10 रुपये से ज़्यादा नहीं रखना चाहिए. उन्होंने कहा, "तुम 500 रुपया शुल्क रखो, चिंता मत करो, लोग जुड़ेंगे."
अब रात के करीब 2 बज रहे थे. मैंने कहा कि मैं जाकर बेचन काकु के कमरे में सो जाता हूँ. उन्होंने कहा कि लाइट और टेलीविज़न ऑफ कर दो. पर वहाँ कोई स्विच था ही नहीं, जिससे कि लाइट ऑफ किया जा सके. किसी होटल कर्मचारी की मदद लेने के उद्देश्य से मैं कमरे के बाहर गया पर वहाँ भी कोई नहीं था. एक बटन वाले टेलीविज़न के रिमोट से ही हमलोग कुश्ती करने लगे. अबकी बार लाइट बंद हो गई पर टेलीविज़न चलता रहा. हमें पता चल चुका था कि उसी रिमोट से लाइट और टेलीविज़न दोनों कंट्रोल होता है. फिर उस एक बटन वाले रिमोट से लड़-भिड़ कर किसी तरह हमलोगों ने टेलीविज़न भी बंद किया, और मैं सोते हुए बेचन काकु को जगाकर उनके कमरे में आ गया. शायद बेचन काकु सोच रहे थे कि इतनी देर क्या-क्या बात हुई, सो उन्होंने बात की शुरुआत करते हुए कहा, "अरे, हमलोग तो दादा के नाक के बाल हैं, तुम्हारे पापा से दादा का संबंध आज का थोड़े ही न है." मुझे पता था कि मुझे किसी से कोई चर्चा नहीं करनी है. फ्रिज में कोल्ड-ड्रिंक्स रखी थी, निकालकर मैं पीने लगा. बेचन काकु भी नींद से जागे थे, सो जल्दी ही फिर सो गये.
सुबह हमलोग देर से उठे. दादा की 11 बजे की फ़्लाइट थी. उन्हें दिल्ली जाना था. मैं कमरे से बाहर निकला तो देखा कि राइफ़ल एसोसिएशन के कई सदस्य बाहर खड़े हैं. उन्हें भी लग रहा था कि अब विलंब हो रहा है, पर वे दादा का कमरा खटखटाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे. मैंने स्थिति को भाँपा और जल्दी से दादा का कमरा खटखटाया. वे उठे. मैंने कहा कि अब ज़्यादा समय नहीं रह गया है. मैं वापस अपने कमरे में आकर जल्दी से तैयार हो गया. बेचन काकु भी तैयार हुए. फिर मैं दादा के कमरे में पहुँचा. जल्दी से उनका बैग पैक किया. इधर बेचन काकु ने फ्रिज में पड़े कुछ अन्य विशेष पेय पदार्थों को अपने बैग में भर लिया. मैंने पूछा कि इससे एयरपोर्ट पर कोई दिक्कत तो नहीं आएगी. उन्होंने कहा, "ऊ सब हम देख लेंगे".
दादा के साथ हमलोग नीचे उतरे. एक नौजवान खुद को पत्रकार के रूप में परिचय देता हुआ आ गया. दादा से पूछने लगा कि क्या वे कॉंग्रेस में शामिल होंगे ? दादा ने कहा कि अभी निर्दलीय ही ठीक हैं. दादा को एयरपोर्ट छोड़कर वापस मैं पुणे के बचे हुए काम को निबटने में लग गया. अगले दिन दोपहर तक काम पूरा हो गया. सो मैं सीधे एयरपोर्ट पहुँचा. करीब डेढ़ घंटे बाद एक फ़्लाइट थी. टिकट भी उपलब्ध था. शाम तक मैं दिल्ली लौट गया.
इस बीच मैंने कॉलेज खोलने वाली बात पर बहुत विचार किया. सबकुछ ठीक ही लग रहा था पर मुझे दादा के कुछ तथाकथित भाइयों से ऐतराज था. मैं जानता था कि वे बाद में पहुँच जाएँगे और अपने निकृष्ट दाँव-पेंच से मुझे परेशान करने की कोशिश करेंगे, और बाद में विवाद भी हो सकता है. इन सब चीज़ों से दादा भी परेशानी महसूस करेंगे, और मुझे भी व्यर्थ के झंझट में उलझने का रत्ती भर भी मन नहीं था. इसलिए मैं तत्काल इस प्रोजेक्ट का टालना चाहता था. सोचा कि जब दादा बहुत दवाब देंगे तब देखा जाएगा.
शायद दादा सोचते थे कि मैं उनकी हैसियत से पूरी तरह से अवगत नहीं हूँ. पर तब मैं बड़ा हो चुका था और उनकी हैसियत को समझ सकता था. मैंने सोचा कि जब दादा ही साथ हैं तो फिर ये कॉलेज-वोलेज का मामला बाद में देखा जाएगा. मुझे यह भी लग रहा था कि कॉलेज के काम में हाथ लगाने के बाद मैं पूरी तरह से बँध जाऊँगा. राजनीतिक रूचि होने के कारण मैंने कुछ वर्ष दादा के निर्देशन में नये मोर्चे पर ही काम करने का प्लान बना रहा था.
सुबह दिल्ली में दादा के सरकारी आवास पर उनसे मुलाकात हुई. उन्होंने कॉलेज का प्रोजेक्ट जल्दी तैयार करने को कहा. मैंने यह कहते हुए टाल दिया कि पहले मैं आगामी ओलंपिक में आपके साथ लंदन जाऊँगा. उसके बाद कॉलेज पर काम करूँगा. मैंने पूछा कि खेल देखने का टिकट खरीदने में ऐसे कितना पैसा लगता है ? उन्होंने कहा, 'पच्चीस हज़ार'. मैंने कहा कि इतना तो मैं खुद से भी दे सकता हूँ. उन्होंने कहा कि किसी एक खेल के एक शो के टिकट का यह दाम है. जितना शो देखोगे, उतना पैसा लगेगा. मैं चौंका और बोला कि तब आप ही कोई इंतज़ाम कीजिएगा.
फिर शाम को मैं पटना लौट गया.
आज वे हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी यादें न जाने मुझ जैसे कितने प्रेमियों के जेहन में है. 1994 में मेरे मैट्रिक पास करने से पहले ही उन्हें यह ख्याल था कि ग्यारहवीं में मुझे केन्द्रीय विद्यालय में एडमिशन लेना चाहिए, और उन्होंने समय पर अपने सांसद कोटे के एक सीट पर मेरे नाम का रकमेंडेशन कर रखा था जिसकी सूचना मैट्रिक रिजल्ट आने के बाद मुझे मिली.
मेरे बारहवीं पास करने के बाद वे मुझे फॉरेन लैंगुएज में दाखिला कराने अपने साथ दिल्ली ले जाना चाहते थे. पर मुझे फॉरेन लैंगुएज में रूचि नहीं थी, इसलिए मैं शांतिनिकेतन चला गया. फिर एक लंबे समय-काल (करीब 11 वर्षों तक) के लिए उनसे मुलाकात नहीं हो सकी. इस बीच मैंने शांतिनिकेतन से बी.ए., एम.ए., बी.एड. इत्यादि पूरा किया. पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कुछ काम किया. एक वर्ष तक एक फिनान्सियल कंपनी में नौकरी भी की. फिर खुद की कंसल्टेंसी शुरू की. तब दुर्गापूजा के अवसर पर पहले गिद्धौर महोत्सव के आयोजन के समय दादा से मुलाकात हुई. मैंने उन्हें पैर छूकर प्रणाम किया और पूछा कि क्या आपने मुझे पहचाना ? उन्होंने जवाब में पूछा, "सरसिज जी कैसे हैं ?" वे मेरे पिताजी के बारे में पूछ रहे थे. मैंने कहा, "ठीक हैं, वे शांतिनिकेतन ही रह रहे हैं." मैंने फिर जानबूझ कर उनसे व्यंग्य में कहा कि मुझे बहुत खुशी है कि आप इतने बडे आदमी हैं. मैं अपने जान-पहचान के लोगों से कहता रहता हूँ कि मेरे एक चाचा हैं जो बहुत बड़े मंत्री हैं. वे मेरी बातों का आशय समझ रहे थे. तब तो उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की पर कुछ वर्षों बाद पुणे के होटल में रात एक बजे मुझे कॉलेज खोलने के लिए कहकर और फिर मेरी सारी शर्तों पर तैयार होकर उन्होंने यह दर्शा दिया कि वे भी मुझे प्रेम करते हैं.
एक बार जब दादा लोकसभा चुनाव हार गये तब कुछ लोगों ने उनसे कहा कि रेलवे में नौकरी देने की वजह से उनकी हार हुई क्योंकि जिन लोगों को नौकरी मिली उनसे कई गुना ज़्यादा लोग ऐसे थे जिन्हें भी नौकरी की अपेक्षा थी पर उन्हें नौकरी नहीं मिल सकी और उनलोगों ने चुनाव में साथ नहीं दिया, और विरोध भी किया. लोग कहते हैं कि तब दादा ने कहा था कि भले ही नौकरी देने से हार हो पर जब भी उन्हें मौका मिलेगा, जितना मौका मिलेगा, लोगों को नौकरी दिलवाएँगे.

21/06/2017, बुधवार 
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