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किस्सा दिग्विजय सिंह का : जब 'मॉर्निंग वाक' बना 'जन-सम्पर्क अभियान'

दादा स्वाभिमानी थे. प्रेमभाव के सामने सहर्ष झुकने वाले दादा बड़ी-बड़ी हैसियत वाले अवसरवादी लोगों के सामने कभी नहीं झुके. सहजता और संयम उनके व्यक्तित्व की खूबियाँ थीं. इसी कारण उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी.

जब 'मॉर्निंग वाक' बना 'जन-सम्पर्क अभियान' :
समय 2009 लोकसभा चुनाव से करीब 3 महीने पहले का था. दादा बाँका स्थित सर्किट हाउस में रुके हुए थे. तैयार होकर सुबह 5 बजे ही वे 'मॉर्निंग वाक' के लिए निकल गए. रास्ते में इक्के-दुक्के ग्रामीण लोग भी मिलने लगे. दुआ-सलाम का सिलसिला भी शुरू हो गया. कुछ लोग साथ भी हो लिए. थोड़ी दूर और आगे बढ़े तो सड़क किनारे एक चाय दुकान पर 10-15 लोग बैठे थे. चाय चूल्हे पर चढ़ी हुई थी. लोगों की नजर दादा पर पड़ी. वे लोग दादा से चाय पीने का आग्रह करने लगे. दादा वापसी के समय रुकने का वादा करके आगे बढ़ गए. अब करीब 15-20 लोग साथ-साथ चल रहे थे. थोड़ा और आगे बढ़ने पर साथ चल रहे एक वृद्ध व्यक्ति ने सड़क की दाईं तरफ एक कच्ची गली की तरफ इशारा करते हुए आग्रह किया 'बस जरी सन इधर से घुस जाखिन, अर घूम के उधर से फिर रोडे पर निकल जाखिन'. वृद्ध व्यक्ति के आग्रह को दादा टाल न सके और सभी लोग उस कच्ची
गली की ओर चल पड़े.

महिलाएँ सुबह- सुबह दरवाजों पर झाड़ू दे रही थीं. घर के बाहर चापाकलों पर बर्तन भी धुल रहे थे. वह कोई मोहल्ला था. खैर, उस कच्ची गली में थोडा आगे बढ़ने पर एक प्राइमरी स्कूल के प्रांगण में लोगों ने दादा को कुर्सी पर बिठाया. मोहल्ले के पुरुष-महिलाएँ वहाँ इकट्ठे हो गए. अब सुबह का 6 बज रहा था. वहाँ के लोग समझ रहे थे कि दादा अपने जन-सम्पर्क अभियान के तहत उनके मोहल्ले में आये हैं. एक ने कहा कि 'अब अपने आय गेलखिन, त जेक्कर मन में कुच्छो बातो रहय, वोहो खतम हो गेलय'. दादा ने बड़ी सहजता से कहा कि 'अरे हम तो सुबह घूमने के ख्याल से निकले थे'.

खैर, दादा ने वहाँ उस प्राइमरी स्कूल के कमरों की संख्या इत्यादि की जानकारी ली. फिर निकल पड़े. दूसरे रास्ते से होते हुए जब दादा उस मोहल्ले से आगे मुख्य सड़क पर निकले और वापस होते हुए जब उस चाय दुकान तक पहुँचे जहाँ पर कुछ लोगों को उन्होंने लौटते समय रुकने वादा किया था, तो वहाँ पर सौ के करीब लोग दादा के इन्तजार में बैठे थे. दरअसल इतनी देर में आस-पास यह हल्ला हो चुका था कि थोड़ी देर में दादा लौटने के क्रम में वहाँ पर चाय पीने के लिए रुकेंगे. इसलिए सैकड़ों लोग जुट गए. उनलोगों ने आस-पास के घरों से कई कुर्सियाँ भी मँगवा ली थी. यह सुबह 7 बजे के आस-पास का समय रहा होगा. दादा के पहुँचते ही ऐसा माहौल बन गया कि मानो पूर्व से तय की हुई कोई बैठक हो. लोगों ने अपनी-अपनी बातें कही. दादा ने भी अपनी बातें कही. इधर मोबाइल से सम्पर्क करके स्कार्पियो वाले को सर्किट हाउस से बुला लिया गया था. खैर, चाय दुकान पर अचानक में आयोजित बैठक खत्म हुई, और दादा गाड़ी में सवार होकर सर्किट हाउस पहुँचे. 'मॉर्निंग वाक' का यह अनुभव दो महीने बाद 2009 के उनके निर्णायक लोकसभा चुनाव के समय सच में 'जन-सम्पर्क अभियान एवं चुनावी मीटिंगों' में बदल गया जिसने उनकी जीत में एक अहम् भूमिका निभाई.
दादा बाहरी समस्याओं और चुनौतियों से कभी नहीं घबराए, चाहे वह समस्या और चुनौती कितनी ही बड़ी क्यों न रही हों. दादा के व्यक्तित्व के समक्ष वे छोटी पड़ गईं. स्वर्गीय दिग्विजय सिंह को प्रेम से उनके चाहने वाले दादा ही कहा करते थे. वे तीन बार लोकसभा एवं दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे. वे भारत के विदेश एवं रेल राज्य मंत्री के पदों पर भी रहे.

धनंजय कुमार सिन्हा के फेसबुक से साभार
~गिद्धौर
21/11/2016, सोमवार

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